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________________ (408) : नंदनवन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है। वीवर और फ्रेशनर ने भौतिक अवस्थाओं का अध्ययन कर पाया कि विभिन्न प्रकार के प्रेरकों, S (कर्मों) का भौतिक प्रभाव R एक गणितीय समीकरण के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है : S=K In R इसका अर्थ यह है कि विभिन्न क्रियायें विशिष्ट प्रकार के आन्तरिक या बाह्य प्रभाव उत्पन्न करती हैं। इस समीकरण में कुछ संशोधन भी हुए हैं। इस समीकरण को कर्मवाद पर अनुप्रयुक्त कर कर्मबन्ध (प्रेरक) और उसके प्रभाव (उदय) का मूल्यांकन किया जा सकता है। 5. कर्म और जीव का बन्ध यह बताया जा चुका है कि कर्म कणमय है और संसारी जीव भी मूर्त समुच्चय हैं। फलतः, दो मूर्त द्रव्यों के बीच बन्ध हो सकता है। कर्म अमूर्त आत्मा से नहीं बंधते। मूर्त-मूर्त द्रव्यों में बन्ध के लिये कुछ अनुबन्ध होते हैं : उनमें विरोधी आवेश होने चाहिये। भगवती आदि ग्रंथों में यह बताया गया है कि (1) मोह एवं द्वेष, अशुभ और भारी होते हैं, उन पर ऋणात्मक आवेश होता है। (2) रागभाव शुभ-अशुभ, हल्के–भारी होते हैं। उन पर ऋण या धन- कोई भी आवेश हो सकता है। (3) अनन्त सुख आदि शुभ और हल्के कर्म होते हैं। उन पर धनावेश होता है। ये प्रवृत्तियां कर्ममय होती हैं। अतः कर्म भी आविष्ट हुए। कर्माविष्ट संसारी जीव तो आविष्ट होता ही है। फलतः, संसारी जीव और कर्मों का बन्ध सम्भव है : संसारी जीव + कर्म → ऊर्जा → नया बन्ध : जीव - कर्म इस बन्ध के लिये आवश्यक ऊर्जा संसारी जीव में स्वयं होती है। इस बन्ध की प्रकृति क्या है, यह कहना किंचित् कठिन है क्योंकि यह भौतिक तपों एवं ध्यान आदि के प्रक्रम से निर्जरित हो जाता है। इसलिये यह बन्ध भौतिक प्रकृति का अधिक प्रतीत होता है। हाँ, इस बन्ध में आन्तरिक ऊर्जा में जो भी परिवर्तन होता हो, शरीर-तंत्र के तापमान में कोई परिवर्तन नहीं होता। अतः यह समतापीय भौतिक क्रिया है। लेकिन यह क्रिया जीवित और निर्जीव तंत्रों के संयोग से ही होती है, अतः वैज्ञानिक इसकी परिमाणात्मकतः पूर्ण व्याख्या नहीं कर सकते। फिर भी, कर्म बन्ध का परिमाण शास्त्रों में दिया गया है। 6. कर्मों के प्रबलतांक जैन शास्त्रों में अनेक स्थलों पर परिमाणात्मक वैज्ञानिकता व्यक्त हुई है। आठ कर्मों की आपेक्षिक प्रबलता इसका प्रमाण है। यह बताया गया है कि सभी कर्मों में मोहनीय कर्म प्रबलतम है, उसका प्रबलतांक 7 है और सबसे दुर्बल गोत्र कर्म है जिसका प्रबलतांक 1 है। वेदनीय कर्म का प्रबलतांक 10 है जो अपवाद है। अन्य कर्मों के प्रबलतांक 2 और 3 के बीच परवर्ती होते हैं। ये प्रबलतांक प्रायः कर्मों की स्थिति पर निर्भर करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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