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________________ कर्मवाद का वैज्ञानिक पक्ष असंख्यात के अनेक भेदों के कारण उच्चतम या मध्यम मानवाल उत्कृष्ट असंख्यात ग्रहण करते हैं। इसका मान भी प्राप्त किया गया है, पर यह इस लेख की सीमा में नहीं आता। फिर भी, यह स्पष्ट है कि कर्म - यूनिट की सूक्ष्मता की धारणा तो इसमें प्रतिफलित होती ही है। : (407) 3. कार्मिक घनत्व की धारणा यह माना जाता है कि कर्म भारी भी होते हैं और हल्के भी होते हैं। भारी कर्म पापात्मक होते हैं और हल्के कर्म पुण्यात्मक होते हैं। किसी भी पदार्थ का हल्कापन या भारीपन उसके विशिष्ट आयतन में विद्यमान द्रव्यमान या मात्रा पर निर्भर करता है, अर्थात् हल्कापन / भारीपन = घनत्व, D = पदार्थ की मात्रा / आयतन हल्केपन और भारीपन का अर्थ घनत्व गुण का द्योतक है। जब जीव प्रदेशों में कर्म - यूनिटों की मात्रा अधिक होती है तब ये भारी कहलाते हैं। हल्के कर्म इसके उल्टे होते हैं। कर्मों का घनत्व, Dk भावात्मक शुद्धता, Vp, पुनर्जन्म, Dy संतोष / असंतोष, S एवं सुख-दुःख, H को निर्धारित करता है । यह पाया गया है कि सभी अच्छे गुण और आचरण कर्मों के घनत्व के व्युत्क्रम अनुपात में होते हैं, अर्थात् 1/Dk = Vp_या, Dy (गति), या, S या, H इसका अर्थ कर्मों का घनत्व जितना ही कम होगा, वे जितने ही हल्के होंगे, उतने ही भाव शुद्ध होंगे, गति अच्छी होगी, संतोष और सुख भी उतनी ही मात्रा में अधिक होगा। फलतः, कर्मवाद के सिद्धान्त का प्रतिफल उसके घनत्व पर निर्भर करता है 1 वस्तुतः हमारे सुख और संतोष हमारी इच्छाओं या आवश्यकताओं की पूर्ति के अनुपात पर निर्भर करते हैं क्योंकि वे अनन्त होती हैं : = S or H ( इच्छा / आवश्यकता पूर्ति) / (कुल इच्छा / आवश्यकता) ( इच्छा / आवश्यकता पूर्ति) / अनन्त हमें इस अनुपात को बढ़ाने के लिये अच्छे कर्म करने चाहिये, संयम पालना चाहिये और इच्छाओं तथा आवश्यकताओं का अधिकतम अल्पीकरण करना चाहिये । प्रो. मरडिया ने कर्म के आश्रव द्वारों के आनुभविक मानों के आधार पर यह बताया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में कर्म - घनत्व सर्वाधिक 36 होता है जो क्रमशः घटते घटते 14 वें गुणस्थान में प्रायः शून्य हो जाता है। 4. कर्मवाद और कार्यकारणवाद : बीवर - फ्रेशनर समीकरण Jain Education International कर्मवाद सामान्यतः उत्परिवर्ती कार्य-कारणवाद के नियम का प्रतीक है। यह भौतिकतः यंत्रवादी या नियतिवादी नहीं है। यह तनाव सहने, पीड़ा की तीव्रता कम करने और सुंदर भविष्य के निर्माण की प्रेरणा देता है । यह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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