SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (398) : नंदनवन से मार्ग साफ करते रहने पर भी मार्गस्थ पीड़न पूर्णतः निराकृत नहीं होता। इसे 50 प्रतिशत की सीमा में ही मानना चाहिये । इस प्रकार, पूर्वोक्त परिकलन के अनुसार 1 किमी के लिये हिंसा-यूनिट। = 0.5 x 1.17 x 1012 = 0.58 x 1013 5.8 x 10111 साधु सामान्यतः वर्ष के 365 दिनों में से लगभग 63 दिन विहार करते हैं क्योंकि 120 दिन चातुर्मास के निकालने पर बाकी के 245 दिनों में वे 4 दिन में एक दिन के हिसाब से चलते हैं । प्रायः वे प्रतिदिन औसतन 10 किलोमीटर चलते हैं। इस प्रकार, 63 दिन 10 किमी के हिसाब से चलन पर सम्भावित हिंसन के यूनिट : 0.58 x 1012 x 10(किमी) x 63 = 3.59x 1012 2. साधु-विहार-सहचारी धार्मिकों का विहारः साधुओं के विहार के समय कुछ संघ के साधु-साध्वीगण तथा धार्मिक व्यक्ति सदैव उनके साथ विहार करते हैं। (कभी-कभी साधु-संघों का आकार काफी बड़ा होता है और धार्मिकों सहित 700-800 तक विहारी हो जाते हैं । उनके साथ वाहन एवं पूरी गृहस्थी रहती है। इन्हें अपवाद मानना चाहिये)। इनकी संख्या 8-10 तो होती ही है। ये धार्मिक व्यक्ति साधु की ईर्या समिति एवं पीछी परिहार के पालक भी नहीं होते। फलतः इनके विहार में सामान्य हिंसन होता है, जैसा पहले बताया गया है । 10 किमी. के लिये = 1.179 x 10' 63 दिन के लिये = 1.179 x 10" x 63= 7.31 x 1013 वाहन-सम्बन्धी हिंसा भी इतनी ही मान लेनी चाहिये : फलतः = 14.62 x 101 = 1.462 x 1014 3. आमत्रणजन्य पीड़न : साधुओं के प्रति गृहस्थों और श्रावकों के अनेक प्रकार के कर्तव्य हैं। वे त्याग और धार्मिकता-संवर्धक हैं। उनके आहार-विहार का प्रबन्ध करना उनका कर्तव्य है। प्रत्येक श्रावक उन्हें अपने ग्राम आने के लिये निमन्त्रित करता है। यह व्यक्तिगत निमन्त्रण का युग नहीं रहा, समूहगत निमंत्रणों एवं बार-बार एक ही स्थान के लिये निमन्त्रणों का युग है। एतदर्थ श्रावकगण कार, जीप या बसों द्वारा अपने-अपने स्थानों से विहार के निमन्त्रण हेतु साधु-वास जाते हैं, एक बार नहीं, अनेक बार। ऐसा अनुमान है कि प्रत्येक साधु-संघ को लगभग दस जगह के निमंत्रण आते हैं। एक ही स्थान के लोग लगभग 3-4 बार आते हैं। उनके द्वारा की गई वाहन-यात्रा में मार्गगत जीवाणु-हिंसा तो होती ही है। साथ ही, निमन्त्रण-स्वीकृति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy