SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (397) फलतः इस प्रक्रिया में जीवाणुपीड़न भी अल्प होता है । यही नहीं, ये जीवित परजीवी बैक्टीरिया अवायुजीवी वातावरण में वर्धित होकर मल को पूर्णतः अपघटित कर उसे खाद-उपयोगी पदार्थों में भी परिणत करते हैं और स्वयं निस्तारण-जल के साथ प्रवाहित हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में यदि यह माना जाय कि 50 प्रतिशत एक ही जाति के बेक्टीरिया निर्जीवित होते हैं। अतः मलगत जीवाणुओं का 50 प्रतिशत ही यहां हिंसन सम्भावित है। फलतः इसका हिंसा-यूनिट मान निम्न होगा : 2.5x 108 x 0.5 x 103 = 125x.10 यूनिट इसके जलगत जीवाणुओं का तो वर्धन ही यहां होता है। उनकी संख्या भी भूमि की अपेक्षा जल (सेप्टिक टैंक) में कम रहती है। डा. चौहान के अनुसार सैप्टिक टैंक में जीवाणुओं की संख्या 10°/लीटर और लगभग स्थिर होती है। जब मल इस टैंक में जाता है, तो ये जीवाणु भी इसके अपघटन में सहायक होते हैं। एक व्यक्ति के मल हेतु प्रायः 30 लीटर टैंक-जल का अनुमान है। इस प्रकार, टैंक में 30 x 1010 = 3 x1011 बेक्टीरिया का औसत होता है। यदि कुछ समय बाद उपरोक्त कारणों से इनका 50 प्रतिशत भी हिंसन होता है, तो इस प्रक्रिया में हिंसा- यूनिटों का मान निम्न होगा : 3x1011 x 0.5 = 1.5 x 1011 x 10-3 = 1.5x108 इस प्रकार, स्वक्षालित शौचालय के उपयोग में हिंसा के यूनिटों का सम्भावित अर्जन = मल-गत बैक्टीरियाओं की हिंसा + जलगत बेक्टीरियाओं की हिंसा = 1.25x10° + 1.50x10° %D2.75x10° यूनिट। यह स्पष्ट है कि स्वक्षालित शौचालय के उपयोग में हिंसन प्रक्रिया, खुले शौचालयों की तुलना में 10°/ 10" = एक हजारगुनी कम होती है। इस अनुमानित परिकलन से हिंसा-अहिंसा सम्बन्धी कुछ विवेक जागृत होगा, ऐसी आशा है। विहार और आमन्त्रणजन्य पीड़न साधु की चर्या में यह सामान्य परम्परा है कि वह चातुर्मास के अतिरिक्त कभी भी एक स्थान पर बहुत दिनों तक नहीं रहता और ग्रामानुग्राम (पुराने समय में, अब नगरानुगर) विहार करता रहता है और सीमित दिनों तक वहां रहकर धर्मोपदेश के माध्यम से और अपनी चारित्र-चर्या से धार्मिकता का संवर्धन करता है। इस विहरण कार्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियां होती हैं जिनमें सूक्ष्म-स्थूल जीव-हिंसन सम्भावित है। 1. साधु का स्वयंकृत विहार : इसमें विहार क्रिया के कारण मार्ग पर चलने में सूक्ष्म-स्थूल जीवाणुओं का पीड़न होता है। साधुओं की चर्या में चार हाथ आगे देखकर तथा पीछी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy