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________________ हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (393) यदि एक भी उच्चतर कोटि का जीव हिंसित हुआ, तो संख्यात एकेंद्रिय जीवों के हिंसन के समकक्ष होगा। इसके विपर्यास में, डा. पी.डी.शर्मा और डा. डी.के.गुप्ता के अनुसार अवायुजीवी शौचालयों में चयापचयी विभवान्तर के अल्पतर होने से जीवाणुओं का वर्धन न केवल अल्पतर होता है, अपितु उनकी सूक्ष्मता भी सूक्ष्मतर होती है। फलतः इसमें हिंसन भी अल्पतर होता है। साथ ही, इस तंत्र में उच्चतर कोटि के जीव भी प्रायः उत्पन्न नहीं होते। यही नहीं, इसके उत्पादों की उपयोगिता कृषि योग्य खाद के रूप में तथा प्राकृतिक चक्रों के परिरक्षण में अधिक होती है। ये सभी तथ्य सारणी 3 से स्पष्ट हो जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, बेक्टीरिया एकेन्द्रिय ही होते हैं। इनमें कुछ गति-त्रस भी होते हैं, पर वे एकेन्द्रिय ही हैं क्योंकि वे त्रस नामकर्म के उदय से उत्पन्न त्रस नहीं हैं। यह सूक्ष्मदर्शीय निरीक्षणों से स्पष्ट है। इनका अध्ययन भी वनस्पति शास्त्र के अन्तर्गत ही किया जाता है। इस तथ्य को अनेक जैन वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं । वस्तुतः जैन प्रारम्भ से ही दो प्रकार के प्राणी मानते रहे हैं : (1) स्थावर (वनस्पति भी एकेन्द्रिय है) और (2) त्रस या जन्तु (उच्चतर इन्द्रिय के जीव, पशु, पक्षी, मनुष्य, देव, नारकी आदि)। यद्यपि जैन शास्त्रों में वनस्पति के भेदों में सर्वत्र पाये जाने वाले निगोदिया या साधारण वनस्पति (सूक्ष्म या बादर) जीवों का नाम्ना उल्लेख है, पर उनका विशेष विवेचन नहीं है। पर वे सूक्ष्म जीव पंचविध एकेन्द्रिय कोटि के वनस्पति वर्ग में समाहित किये गये हैं। इनका अधिकतम विस्तार धनांगुल का असंख्यातवां भाग माना जाता है। यदि मुनि महेन्द्र के अनुसार उत्सेधांगुल का मान 1.07 सेमी. माना जाये, तो धनांगुल भी प्रायः 1 सेमी. होगा, और असंख्यात को वर्तमान व्यावहारिक महासंख (1021) से कम-से-कम एक अधिक माना जाये, तो जैन शास्त्रानुसार सूक्ष्म जीव का अधिकतम विस्तार 10-1 सेमी. होगा। इनकी जघन्य अवगाहना तो अंगुल के अनन्तवें भाग तक मानी जा सकती है। इनका आकार चतुरस्र या गोल बताया गया है। इसके विपर्यास में आज के बेक्टीरिया-जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं का विस्तार तो बहुत ही अधिक है: बेक्टीरिया 10° सेमी. यीस्ट 10 सेमी वायरस 10 सेमी. प्रोटोजोआ 10-5 सेमी फलतः इन्हें जैन शास्त्रानुसार, सूक्ष्म कैसे कहा जाय ? अतएव शास्त्रीय सूक्ष्म निगोदिया तथा वैज्ञानिकों द्वारा अध्ययनित सूक्ष्म बेक्टीरिया आदि प्रोटिस्ट जीवों की तुलना भी नहीं हो सकती। फिर भी, इनके अनेक गुण समान हैं जैसा ए:के.जैन ने बताया है (सारणी 3)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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