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________________ हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (385) साधु जैन परम्परा श्रमण परम्परा कहलाती है। इसमें साधु-संस्था का संस्कृति के परिरक्षण एवं संवर्धन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह संस्था केवल आत्मकल्याणी ही नहीं है, सर्वजनकल्याणी भी है। सामान्यतः साधु तो निग्रंथ ही माना गया है, पर उसके पूर्व भी यह प्रतिमाओं के पालन द्वारा साधुत्व की दिशा में क्रमशः बढ़ता रहता है। मूलाचार के अनुसार, छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी साधु व्रती या देशसंयत होते हैं। फलतः, साधुत्व तप और साधना का, सच्चरित्र का, सद्गुणों का और आत्मिक परमकल्याण के मार्ग का प्रतीक है। "साधु' शब्द 'साध्' धातु से बनता है। कोशकारों के अनुसार इसके 18 अर्थ होते हैं जिनमें साधु का (1) विशिष्ट गुण (2) उत्तम चारित्री (3) सम्यक् प्रवर्तनी (4) सम्यक्त्वी (5) दयालु (6) प्रसन्नव्यक्तित्वी (7) भद्र परिणामी (8) करुणा-पूर्ण (७) अध्यात्म-व्यापारी जैन सन्त (10) कषायवशी (11) पाप-वृत्तिनाशी (12) सत्वगुण प्राप्त (13) स्व-पर-पुण्य संवर्धक (14) शिशिक्षु एवं मुमुक्षु (15) आत्मगुण-प्रकाशी (16) लक्ष्य-प्रापक (17) लक्ष्य-पूर्णी एवं (18) फलीभूत साधक कहा गया है। उत्तम साधु तो वह होता है जो चरम आध्यात्मिक उत्कर्ष प्राप्त कर अजन्मा हो जाता है। _जैनों के अनुसार, साधुत्व की अवस्था से ही जन्म-मरण प्रक्रिया विराम पाती है और स्थायी अनन्त-चतुष्टय विकसित होता है। प्रत्येक गृहस्थ या श्रावक का चरम लक्ष्य साधुता को ग्रहण कर इस चरम लक्ष्य को प्राप्त करना है । इसे प्राप्त करने के पूर्व वह संसारी जीव ही बना रहता है। तथापि, उसकी कोटि क्रमशः उच्चतर होती जाती है। इसलिये साधु की भी सामान्य गृहस्थ के समान कुछ जीवन-सम्बन्धी अनिवार्य आवश्यकतायें (आहार एवं नित्य-क्रियायें आदि) तो होती ही हैं, कुछ साधना की चर्यायें (तप, साधना, व्रतपालन आदि) भी होती हैं। शास्त्रों में साधुओं की इन चर्याओं को 18, 25, 27 या 28 मूलगुण (अनेक प्रकरणों में 36) तथा 34 उत्तरगुणों के रूप में बताया गया है। 28 मूलगुण 34 उत्तरगुण 1-5 महाव्रत 1-22 22 परीषह-सहन 6-10 23-28 06 बाह्य-तप अभ्यास 11-15 5 इंद्रिय-निग्रह 29-34 06 अंतरंग तप-अभ्यास 16-21 6 आवश्यक (सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण (भूत), प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग-गृहस्थों के लिये ये भिन्न हैं) अचेलकता अस्नान 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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