SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंसा का समुद्र : अहिंसा की नाव : (377) इसी प्रकार, प्रेमज, अशक्तिक, निरपेक्ष, स्वार्थज एवं मोहज अहिंसा निंदनीय नहीं मानी जाती, पर अविवेकज एवं कापटिक अहिंसा त्याज्य कोटि में आती है। वस्तुतः पूर्ण अहिंसा का पालन पूर्ण प्रलय में ही सम्भव है। इस प्रकार, हिंसा और अहिंसा के हितकारी एवं अहितकारी रूपों का ऐसा विस्तृत वर्णन जैन शास्त्रों में उपलब्ध नहीं होता। गृहस्थों की हिंसा : (अ) कृषिजन्य हिंसा अब हम गृहस्थ-जीवन के संचालन में होने वाली हिंसा का संक्षेपण करें। भगवान ऋषभ ने भोगभूमि-समाप्ति के उत्तरकाल में गृहस्थों को षट्कर्मों का उपदेश दिया था । पता नहीं, उन दिनों अहिंसा की कितनी प्रतिष्ठा थी, पर उन्होंने षट्कर्मों में विविध प्रकार की हिंसा से समाहित चार व्यवसाय अर्थात् दो तिहाई (छह में से चार व्यवसायों, असि, मसि, कृषि, शिल्प) से जीविका चलाने का उपदेश दिया था । इनके पुत्र भरत ने स्वयं दिग्विजय और बाहुबलि के युद्ध का क्षत्रियोचित असि-धर्म निभाया था। अब तो जैनी प्रायः वणिक् हो गये हैं, अतः असि-व्यवसाय तो छूटा हुआ-सा है, पर वे अन्य तीन व्यवसाय (कृषि, शिल्प, वाणिज्य, इनमें धातु एवं खनिज व्यापार समाहित होता ही है) करते हैं। इस युग में इन व्यवसायों की विविधता और बढ़ गई है। वे मसि-कर्म (लेखा-जोखा, आर्थिक क्षेत्र के अनेक व्यवसाय, एवं विद्या का काम) तो करते ही हैं । कृषि से वे आहार और वस्त्र प्राप्त करते हैं, शिल्प और वाणिज्य से वे आजीविका प्राप्त करते हैं। इन व्यवसायों के साथ-साथ भगवान् ने धर्म-मार्ग का उपदेश भी अवश्य दिया होगा और उन्होंने हिंसा-समाहारी व्यवसायों के धर्म के साथ समन्वय के भी उपदेश दिये होंगे। ये आज उपलब्ध नहीं हैं। __ महावीर के युग तक आते-आते निग्रंथ धर्म अध्यात्म-प्रधान हो गया और विभिन्न व्यवसायों के प्रति किंचित् अन्यमनस्कता भी आई। साथ ही, हिंसा-समाहारी व्यवसायों को असंकल्पी घोषित कर इन्हें अबन्धी या अल्पबन्धी मान लिया गया। वस्तुतः निग्रंथ समुदाय ने इस प्रकरण में बड़ी चतुरता प्रदर्शित की। उन्होंने हिंसा को पाप कहकर भी जीवन के लिये अनिवार्य कार्यों में होनेवाली एकेन्द्रिय या अल्प-उच्चतर कोटि की हिंसा को भी अबन्धी या अहिंसावत् मान लिया और इन कार्यों में होने वाली हिंसा को अनुमोदित किया । इसीलिये जहां वनस्पति-विशेषों की भक्ष्यता पर प्रश्न उठाया जाता है, वहीं कृषि आदि के लिये स्वतन्त्रता दी जाती है। कभी-कभी ऐसी मान्यतायें रोचकता की सीमा लांघ जाती हैं। वस्तुतः, यदि जीविका के लिये या भोजन पकाने के लिये कार्य करना है, तो उसे करने या सुरुचि भोजन के लिये मानसिकता तो होगी ही। इसकी उपेक्षा किंचित् दुरूह-सी लगती है। कुछ लोग तो राजनीतिक युद्धों को भी धर्मयुद्ध बताकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy