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________________ पुण्य और पाप का सम्बन्ध : (349) \ फलतः यह माना जा सकता है कि एक पुण्यमय कार्य प्रायः पांच पापमय कार्यों को उदासीन कर सकता है। निश्चित रूप से, पांच की संख्या 'एक' की संख्या की तुलना में 'बहु' तो मानी जा सकती है। यदि इस सम्बन्ध में अन्य कोई शास्त्रीय आधार या धारणा उपलब्ध हो, तो ज्ञानीजन लेखक को सूचित करें । यहां यह भी विचार किया जा सकता है कि गृहस्थों के (या साधुओं के ) छह दैनिक आवश्यक कर्तव्य (देव पूजा; आधे घंटे; गुरु वन्दन चौथाई घंटे; स्वाध्याय; आधा घण्टा, प्रतिक्रमण; लगभग डेढ़ घंटे आरती आदि; चौथाई घंटे) प्रायः तीन घंटे प्रतिदिन के हिसाब से किये जाते हैं। ये धार्मिक या पुण्यमय या अहिंसक वृत्तियां हैं। इसके विपर्यास में सामान्य प्रवृत्तियां 24 घंटे चलती रहती हैं। इस प्रकार पुण्य प्रवृत्तियों के तीन घंटे सामान्य प्रवृत्तियों के 24 घंटे की हिंसावृत्ति को उदासीन करते होंगे। फलतः पुण्य और पाप का सम्बन्ध 3 : 24 या 1 8 भी माना जा सकता है। चूंकि सभी लोग तीन घंटे की धार्मिक प्रवृत्तियां नहीं करते इसलिये उनकी सामान्य प्रवृत्तियों की हिंसा की मात्रा निरन्तर वर्धमान होती रहती है । यह भी एक विचारणीय विषय है । पर प्रश्न यह है कि पुण्य की परिमाणात्मकता का केवल यह अनुपात ही आधार है या अन्य भी कुछ हो सकता है ? साथ ही, विभिन्न पुण्य कार्यों की कोटि कैसे निर्धारित की जाये ? यह हिंसा की परिमाणात्मकता के समान सरल नहीं है। हमने हिंसा की मात्रा के परिकलन में विभिन्न जीवों की चैतन्य कोटि का आधार भी लिया है। सभी जीवों की आत्मा में समान - क्षमता होते हुये भी उनकी चैतन्य कोटि में अन्तर होना ही चाहिये । यदि एक जीव में एक आत्मा की धारणा ही सही मानी जाये, तो दो इन्द्रिय या पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में बराबर हिंसा माननी होगी, जो सही नहीं 'लगता। इसलिये हिंसा का मान भी जीवों की चैतन्य कोटि पर आधारित मानना चाहिये । यदि हम वर्तमान विज्ञान के अनुसार, जीव की कोशिकीय संरचना मानें, तो इन्द्रियों की वृद्धि के साथ सामान्यतः स्थूलता भी बढ़ती जाती है और उनमें कोशिकाओं की संख्या भी बढ़ती जाती है। कोशिकाओं का आकार, विस्तार एवं संख्या का मापन अनुमित किया जा सकता है। इस दृष्टि से मनुष्यों के जीव में सौ खरब (1013 कोशिकायें) पाई जाती हैं और बैक्टीरिया एक कोशिकीय होता है। फलतः एक बैक्टीरिया की तुलना में सामान्य पंचेन्द्रिय मनुष्य की हिंसा में 1013 गुनी हिंसा सम्भावित है। इस आधार पर उनका चैतन्य भी इनकी तुलना में एक खरब गुना होना चाहिये । इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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