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नंदनवन
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शब्दों के अनेक रूप होते हैं । इसलिए इसका कोई स्वतन्त्र एवं विगलित व्याकरण नहीं हो सकता । अतः इसके प्रथम स्तर के जनभाषाधारित साहित्य को व्याकरणातीत मानना चाहिए । दिगम्बरों के आगम-तुल्य प्राचीन ग्रंथों की भाषा दूसरी-तीसरी सदी की शौरसेनी–गर्भित अर्धमागधी प्राकृत है। इसे स्वीकार करने में अनापत्ति होनी चाहिए । व्याकरणातीत भाषा और साहित्य ही सर्वजन या बहुजन (90% और उससे अधिक) बोधगम्य हो सकता है। व्याकरण-निबद्ध भाषा तो अल्पजन बोधगम्य होती है। यह तथ्य हम किसी भाषा - हिन्दी साहित्य और उसकी अनेक प्रान्तीय/ क्षेत्रीय बोलियों के आधार पर भी
अनुमानित कर सकते हैं । 5. व्याकरणातीत जन भाषाओं को उत्तरवर्ती व्याकरण-निबद्ध करने की
प्रक्रिया जन भाषाओं के विकास के इतिहास के परिज्ञान में व्याघात करती है। साथ ही, इन जन भाषाओं के विकास के समय का कोई प्राचीन व्याकरण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर उनकी भाषा नियन्त्रित की जा सके । इस दृष्टि से कोई भी शब्दरूप आगम-बाह्य नहीं हो सकता । आगम-तुल्य ग्रंथों में एक ही अर्थवाची अनेक शब्द रूपों को यथावत् रहने देना चाहिए । किसी को भी सम्पादन-बाह्य या अमान्य नहीं करना चाहिए । चूंकि आगमों में सभी प्रकार के शब्द रूप पाए जाते हैं, अतः किसी एक रूपों को वरीयता देने के लिए केवल उसे ही व्याकरण-संगत मान लेने की मनोवृत्ति छोड़ देनी चाहिए । हॉ, अन्य उपलब्ध शब्द रूपो को प्रतियों के आधार पर पाद-टिप्पण में अवश्य दे देना चाहिए । ऐसा करने से आगमों में एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप होने की पुष्टि भी होगी। आगमों की प्राचीन विविधता तथा मूलरूपता अक्षुण्ण रहेगी। यह इसलिए भी आवश्यक है कि हमारे पास कुन्दकुन्द के द्वारा हस्तलिखित कोई प्रति नहीं है और अभी सम्पादन में 1500 वर्ष बाद की उपलब्ध आधार प्रति (?) काम में ली जा रही है। सम्पादन-भाषिक या अन्य की स्वस्थ परम्परा को स्वीकार कर पूर्व सम्पादित ग्रन्थों के अगले संस्करणों में संशोधन कर लेना चाहिए । इस परम्परा में निम्न बातें मुख्य हैं : (अ) मूल आधार प्रति की गाथा पहले दी जाए । (ब) उसके बाद संशोधित या सम्पादित रूप दिया जाए । (स) अन्वयार्थ या भावार्थ दिया जाए । (द) अन्य प्रतियों के आधार पर पाद-टिप्पण अवश्य दिए जाएँ।
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