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________________ दिगम्बर आगम-तुल्य ग्रन्थों की भाषा : सम्पादन और संशोधन की विवेचना : (327) है। वे तो ग्यारहवीं सदी के ही प्राकृतज्ञ थे । इसे मौन होकर सहना जैनों की अनेकान्तवादिता ने ही सिखाया है ? फिर भी, इस दृष्टि से एवं कथनों से वे आहत एवं आवेशित तो हुए ही हैं। पर, यह शुभ आवेश है और इसका सुफल जिनवाणी के सहज रूप में बनाए रखने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने में सहायक होगा । 13. समालोचनाओं में भाषा का संयमन : सम्पादन कार्य या किसी भी कृति की समालोचनाओं या उनका समाधान देने में भाषा का संयम अत्यन्त प्रभावी होता है । पर ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पादक की समाधान भाषा उत्तरापेक्षी रही है। आचार्यों की परोक्ष अवमानना उनके ज्ञान और भाषा के प्रति अशोभन शब्द, सामान्य सार्वजनिक और पत्राचारी चेतावनियाँ आदि भाषा के असंयम को व्यक्त करते हैं। एक ओर का भाषा का असंयम दूसरे पक्षों को भी प्रभावित करता है। भाषा का यह असंयम श्रद्धालुओं को भी कष्टकर सिद्ध हुआ है। क्या यह असंयम विद्वान जैनों या साधुजनों को शोभा देता है? यह सचमुच ही दुर्भाग्य की बात है कि कुछ समयपूर्व कुन्दकुन्द के नवोदित भेद-विज्ञानियों ने कुछ समय तक अपने विचारों की असंयमित भाषा से समाज में रौद्ररूप के दर्शन कराए थे और अब फिर कुन्दकुन्द आए हैं अपने साहित्य की भाषा के माध्यम से, जो असंयम फैलाने में निमित्त कारण बन रहे हैं । इसे अध्यात्मवादी कुन्दकुन्द का दुर्भाग्य कहा जाये या उसके अनुयायियों का, जो समाज को आध्यात्मिकतः एकीकृत करने के माध्यम से उसे विश्रृंखलित करने की दिशा में अग्रणी बन रहा है। आगम तुल्य ग्रंथों की प्रतिष्ठा हेतु कुछ सुझाव : उपरोक्त अनेक प्रकार के चिन्तनीय प्रश्न चिन्हों एवं अप्रत्याशित रूप से जैन-तन्त्र के लिए दूर दृष्टि से अहितकारी सम्भावनाओं के परिप्रेक्ष्य में आगम-तुल्य ग्रंथों के शौरसेनी आधारित सम्पादन का उपक्रम गहन पुनर्विचार चाहता है। इसके लिए कुछ आधार भूत सम्पादन-धारणाओं को परिवर्धित करना होगा। इनमें निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण हैं : 1. हमारे पारम्परिक आगम-तुल्य ग्रंथ जिस भाषिक बहुरूपता में हैं, उन्हें प्रामाणिक मानना चाहिये । 2. हमारे प्रकाशित आगम-तुल्य ग्रंथों की भाषा की भ्रष्टता एवं अशुद्धता तथा उनके रचयिता आचार्यों में भाषा ज्ञान की अल्पता की धारणाएँ, अयथार्थ होने के कारण, छोड़नी चाहिए । 3. प्राकृत भाषा जनभाषा रही है। उसके मागधी, शौरसेनी और अर्धमागधी आदि रूपों को क्षेत्रीय मानना चाहिए। हॉ, उनकी अन्योन्य प्रभाविता एक सहज तथ्य है। प्रत्येक जनभाषा में अनेक भाषाओं एवं उपभाषाओं के शब्दों का समाहार होता है। इसीलिए इनमें एक ही अर्थ के द्योतक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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