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________________ (312) : नंदनवन समयानुसार परिवर्तित होते रहे हैं। उपलब्ध कलाओं को संयुक्त करने पर उनकी संख्या 140 तक हो जाती है। इसी प्रकार, स्त्रियों की 64 कलायें भी लगभग 140 हो जाती हैं । 9. रोगों की संख्या : आगमों में सामान्यतः 16 रोग बताये गये हैं पर उन्हें विभिन्न स्रोतों से संकलित करने पर 64 हो जाते हैं । रोग तो सामान्यतः उल्लंधित आचार माने जाने चाहिये। इन विवरणों में हम भौतिक जगत सम्बन्धी मान्यताओं पर विचार नहीं कर रहे हैं। उनमें परिवर्तनों की संख्या भी पर्याप्त है। उपरोक्त सैद्धान्तिक और आचारगत परिवर्तन प्रायः शास्त्रीय हैं । मध्ययुग और नये युग में भी 'परिवर्तन की परम्परा वर्धमान रही है। यह अनेक शास्त्रीय एवं सामयिक समस्याओं के समाधार का प्रयत्न करती है। उदाहरणार्थ : अ. लोंकाशाह और तारणस्वामी ने श्वेताम्बर और दिगम्बरों में शास्त्र-पूजक एवं मूर्तिपूजा विरोधक सम्प्रदायों की स्थापना की। इसका आधार शास्त्रीय के अतिरिक्त मन्दिर दुर्व्यवस्था भी रहा है। ये पंथ आज पर्याप्त प्रगतिशील हैं। ब. अमर मुनि ने साधुओं के लिये वाहन-प्रयोग, शस्त्रपरिणत भक्ष्यता को पुनः प्रतिष्ठित किया। उन्होंने स्वचालित शौचालयों के उपयोग को भी स्वीकृति दी। (यद्यपि ये विषय आज भी विचार श्रेणी में हैं) स. आचार्य तुलसी ने जैनधर्म के विश्वीय सम्प्रसारण के लिये समण-समणी की परम्परा स्थापित की जो गृहस्थ और साधु की कोटियों के मध्यवर्ती है। इसके सदस्य विदेश जाकर धर्म प्रचार भी अनेक वर्षों से कर रहे हैं। द. आचार्य विद्यानन्द ने जीवन्त-स्वामी की प्रतिमा की पूज्यता बताई और जैनों के हिन्दूकरण का संकेत दिया । य. अधिकांश पश्चिम विचारक भारतीय धर्मों को नकारात्मक और निराशावादी कहते हैं । इस धारणा को निर्बल करने के लिये स्वामी सत्यभक्त ने धर्म की परिभाषा को नया रूप दिया है । उनके अनुसार, धर्म से संसार में सुख का संवर्धन होता है। दुःख निवृत्ति तो परोक्ष फल है। वैसे भी धर्म की परिभाषा समय-समय पर बदलती रही है। प्रथम युग में, यह 'धम्म. हि हितयं पयाणं' के रूप में प्रजामुखी थी, बाद में यह 'जीवरक्षण' के रूप में आई और फिर 'आत्म-विशुद्धि साधन' के रूप में व्यक्तिनिष्ठ हो गई । पर अब यह 'क्षेमं सर्वप्रजानां' के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है। सत्यभक्त के समान, महात्मा भगवानदीन ने भी श्रावकों की प्रतिमाओं को नया नाम और रूप देकर उन्हे सकारात्मक तथा समाजमुखी बनाने की प्रक्रिया बताया है। ► Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006597
Book TitleNandanvana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages592
LanguageEnglish
ClassificationBook_English
File Size25 MB
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