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आगम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन : (299)
उपभोग
(ब) शिक्षा व्रत कुन्दकुन्द सामायिक प्रोषघोपवास अतिथि पूज्यता सल्लेखना समन्तभद्र, सामायिक प्रोषधोपवास वैयावृत्य
देशावकाशिक आशाधर उमास्वाति सामायिक प्रोषधोपवास अतिथि संविभाग उपभोग परिभोग परिमाण सेमदेव सामायिक प्रोषधोपवास वैयावृत्य
भोग-परिभोग परिमाण यहां कुन्दकुन्द और उमास्वाति की परम्परा स्पष्ट द्रष्टव्य है। अधिकांश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उमास्वाति का मत माना है। साथ ही, भोगोपभोग परिमाणव्रत के अनेक नाम होने से उपभोग शब्द की परिभाषा भी भ्रामक हो गई है :
एकबार सेव्य बारम्बार सेव्य समन्तभद्र भोग
उपभोग पूज्यपाद
परिभोग सोमदेव भोग
परिभोग श्रावक की प्रतिमायें : श्रावक से साधुत्व की ओर बढ़ने के लिये ग्यारह प्रतिमाओं की परम्परा कुन्दकुन्द युग से ही है। संख्या की एकरूपता के बावजूद भी अनेक के नामों और अर्थों में अन्तर है। सबसे ज्यादा मतभेद छठी प्रतिमा के नाम को लेकर है। इसके रात्रिभुक्ति त्याग (कुन्दकुन्द, समन्तभद्र) एवं दिवामैथुन त्याग (जिनसेन, आशाधर) नाम मिलते हैं । रात्रिभुक्तित्याग तो पुनरावृत्ति लगती है, यह मूल गुण है, आलोकित पान-भोजन का दूसरा रूप है। अतः परवर्ती दूसरा नाम अधिक सार्थक है। सोमदेव ने अनेक प्रतिमाओं के नये नाम दिये हैं । उन्होंने 1 मूलव्रत (दर्शन), 3 अर्चा (सामायिक), 4 पर्वकर्म (प्रोषध), 4 कृषिकर्म त्याग (सचित्त त्यग), 8 सचित्त त्याग (परिग्रह त्याग) के नाम दिये हैं । हेमचन्द्र ने भी इनमें पर्व कर्म, प्रासुक आहार, समारम्भ त्याग, साधु निस्संगता का समाहार किया है। सम्भवतः इन दोनों आचार्यों ने प्रतिमा, व्रत व मूल गुणों के नामों की पुनरावृत्ति दूर करने के लिये विशिष्टार्थक नामकरण किया है। यह सराहनीय है। परम्परापोषी युग की बात भी है। बीसवीं सदी में मुनि क्षीरसागर ने भी पुनरावृत्ति दोष का अनुभव कर अपने रत्नकरंडश्रावकाचार की हिन्दी टीका में 3 पूजन 4 स्वाध्याय, 7 प्रतिक्रमण एवं 11 भिक्षाहार नामक प्रतिमाओं का समाहार किया है। पर इन नये नामों को मान्यता नहीं मिली है। व्रतों के अतिचार : श्रावकों के व्रतों के अनेक अतिचारों में भी भिन्नता पाई गई है। इस सन्दर्भ में आर. विलियम्स की "जैन योगा" पुस्तक द्रष्टव्य है।" जाति एवं वर्ण की मान्यता : शिद्धान्तशास्त्री ने बताया है कि आचार्य जिनसेन की जैनों के ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया उसके पूर्ववर्ती आगम साहित्य
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