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का साथ आधारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वही मात्र एक ऐसा शाश्वत धर्म है जिसका सभी तीर्थकर उपदेश करते हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है - भूत भविष्य और वर्तमान के सभी अहंत यही उपदेशा करते हैं कि सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीवन और सभी सत्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किसी का हनन करना चाहिए। यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है ( 1/4/2)। जिसका समस्त लोक कीखिद)पीड़ा को जानकर अढतों के द्वारा प्रतिपादन किया गया है। वस्तुतः प्राणियों के जीवित रहने का नैतिक अधिकार ही अहिंसा के कर्तव्य की स्थापना करता है। जीवन के अधिकार का सम्मान ही अहिंसा है। उत्तराध्ययन सूत्र में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धान्त स्थापना करते हुए कहा गया है - भय और वैर से मुक्त साधक जीवन के प्रति प्रेम रखने वाले प्राणियों का सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करे (6/711 यह मेकेन्जी की भय पर अधिष्ठित अहिंसा की धारणा का सबोट उत्तर है। प्राचीनतम जैन आगम आचारांग सूत्र में तो आत्मीयता की भावना, आधार पर ही अहिंसा-स्दिान्त की प्रस्तावना की गई है। उसमें कहा गया है कि जो लोक (अन्य जीव समूह) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता (1/1/3)है। इसी ग्रन्थ में आगे आत्मीयता की भावना को परिपुष्ट करते हुए महावीर कहते हैं - जिते तू मारना चाहता, वह तू ही है जिसे तू शासित करना चाहता है वह तू ही है जिसे तू परिताप देना चाहता है वह तू ही है (1/5/5)।
जैन धर्म में अहिंसा की यह भावना कितनी आवश्यक है यह बताने के लिए प्रश्नव्याकरण सूत्र में उसके साठ पर्यायवाची नाम दिये हैं, जिसमें कुछ नाम हैं - शान्ति, समाधि, प्रेम, वैराग्य, दया, स्मृद्धि कल्याण, मंगल, प्रमोद, रक्षा, आस्था, अभय आदि। इससे हमें उसकी व्यापकता का पता लग सकता है। हिंसा का छोड़ना यही मात्र अहिंसा नहीं है | निषेधात्मक अहिंसा जीवन के . सभी पक्षों का स्पर्श नहीं करती, वह आध्यात्मिक उपलब्धि कही जा सकती है। निषेधात्मक अहिंसा मात्र वाह्य बनकर रह जाती है,आध्यात्मिकता तो आन्तरिक होती है। हिंसा नहीं करना, यह अहिंसा का शारीर हो सकता है अहिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना यह अहिंसा
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