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________________ 23 आध्यात्मिक जीवन या समत्व की उपलब्धि भी सम्भव नहीं होती। अहिंसा-समतामूलक समाज का आधार : आधनिक मानस भयाक्रान्त है। आज विश्व का प्रत्येक राष्ट्रः अपने को अंसर क्षित अनुभव कर रहा है और सुरक्षा के नाम पर खरबों रूपये व्यय कर रहा है। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्पूर्ण बजट का आधा से अधिक भाग सुरक्षा के नाम पर व्यय हो यह क्या मानव जाति के लिए दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है? सुरक्षा के नाम पर मानव जाति के महा-विनाश को खुला आमंत्रण देना यही क्या मानव जाति की नीति है। आज के मानस में अभयकर विकास आवश्यक है अन्यथा हमारा अस्तित्व खतरे में है। स्वार्थवृत्ति, अधिकार, लिप्सा, असहिष्णुता, सत्ता लोलुपता आदि सभी अनैतिक प्रवृत्तियां हिंसा के विविध रूप हैं। मात्र इतना ही नहीं सम्प्रदायवाद, जातिवाद, वर्ग-द्वेष आदि वे सभी प्रवृत्तियां भी जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारे खड़ी कर उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार करती है, हिंसा की ही विविध अभिव्यक्तियां हैं। हमारा दुर्भाग्य तो यह है कि म अहिंसा की बात करते हैं किन्तु हिंसा में जीते हैं। एक जमाना था जब मनुष्य अपनी हिंसक वृत्तियों का प्रदर्शन धर्म के नाम पर करता था, वह अपने संघर्षों को धर्म युद्ध की संज्ञा दाा था, आज भी हम विश्व शान्ति के लिए युद्ध करते हैं, यह सब आत्मप्रवंचना है, धर्म का युद्ध से अथवा शान्ति का संघर्ष से कोई तालमेल नहीं है। शान्ति और धर्म हिंसा से नहीं, अहिंसा से ही प्रतिफलित हो सकते हैं। भगवान बुद्ध ने कहा कि वैर से वैर शान्त नहीं होता है। हिंसा से हिंसा ही प्रतिफलित होगी, अहिंसा नहीं। वस्तुतः हिंसा के मूल में घृणा, भय, आक्रोश, स्वार्य एवं भोगलिप्सा की प्रवृत्तियां ही काम करती हैं और जब तक इन पर विजय प्राप्त नहीं की जाती है, अहिंसा का जीवन में प्रकटन सम्भव नहीं है। इनके विपरित अहिंसा के आधार है प्रेम, आत्मीयता, त्याग, समता, करुणा। उसकी विशिष्टता का वर्णन करते हुए महावीर कहते है, भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध, और वन में जो सार्थवाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.006502
Book TitleKeynote Address of Dr Sagarmal Jain at Calcutta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahadeolal Saraogi
PublisherMahadeolal Saraogi
Publication Year
Total Pages72
LanguageEnglish
ClassificationBook_English, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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