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इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव में संग्रह-वृत्ति या परिग्रह की धारणा का विकास उसकी तृष्णा के कारण ही हुआ है। मनुष्य के अन्दर रही हुई तृष्णा या आसक्ति मुख्यत: दो रूपों में प्रकट होती है - (1) संग्रह भावना और (2) भोग भावना । संग्रह भावना और भोग-भावना से प्रेरित होकर ही मनुष्य दूसरे व्यक्तियों के अधिकार की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति का बाह्य प्रकटन निम्नलिखित तीन रूपों में होता है - (1) अपहरण (शोषण), (2) भोग, और (3) ESTET
संग्रवृत्ति एवं परिग्रह के कारण उत्पन्न समस्याओं के निराकरण के उपाय
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भगवान् महावीर ने संग्रहवृत्ति के कारण उत्पन्न समस्याओं के समाधानों की दिशा में विचार करते हुए यह बताया कि संवृत्ति पाप है। यदि मनुष्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करता है तो वह समाज में अपवित्रता का सूत्रपात करता है। वाह फिर चाहे धन का हो या अन्य किसी वस्तु का, वह समाज के अन्य सदस्यों को उनके उपभोग के लाभ से वंचित कर देता है। परिग्रह या संग्रह वृत्ति एक प्रकार की सामाजिक हिंसा है। जैन आचार्यों की दृष्टि में सभी परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न है। व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितो का हनन करता है और इस रूप में ग्रह या परिग्रह हिंसा का ही एक रूप बन जाता है। अहिंसा के सिद्धान्त के जीवन में उतारने के लिए जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि व्यक्ति बाह्य परिग्रह का भी विसर्जन करे । परिग्रह- त्याग अनासक्त दृष्टि का वाह्य जीवन में दिया गया प्रमाण है। और विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति का सिद्धान्त, इन दोनों में कोई मेलनहीं हो सकता, यदि मन में अनासक्ति की भावना का उदय है तो उसका बाह्य व्यवहार में अनिवार्य रूप से प्रकटन होना चाहिए। अनासक्ति की धारणा को व्यावहारिक रूप देने के लिए गृहस्थ जीवन में परिग्रह- मर्यादा और श्रमण जीवन में संग्रह परिग्रह का आदर्श अनासक्त दृष्टि का एक जीवित प्रमाण है। यद्यपि यह सम्भव है कि अपरिग्रही होते हुए भी व्यक्ति के मान में आसक्ति का तत्व रह सकता है, लेकिन इस आधार पर यह मानना कि विपुल संग्रह को रखते हुए भी अनासक्त वृत्ति का पूरी तरह निर्वाह हो सकता है, समुचित नहीं है।
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