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है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से सम्पर्क न हो और उसके कारण सुखद या दुःखद अनुभूति न हो , अत: त्याग इन्द्रियानुभूति का नहीं अपितु उसके प्रति चित्त में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष करना है, क्योंकि इन्द्रियो के मनोज्ञ या अमनोज्ञ विष्य जासक्त-चित्त के लिए ही राग-द्वेष (मानसिक विक्षोभो) का कारण बनते है अनासक्त या वीतराग के लिए नहीं (32/101) अत: जैन धर्म की मूल शिक्षा ममत्व के विसर्जन की है, जीवन के निषेध की नहीं । क्यों कि उसकी दृष्टि में ममत्व या आसक्ति ही वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की समस्त विषमताओं का मूल है।
जीवन में तनावों का कारण ममत्व
सतत् शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास ते चेतन बाह्य उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से प्रभावित होने की प्रवृत्ति विकति कर लेता है । अन्य पदार्थों' में रस लेने की इस प्रवृत्ति से अज्ञान के कारण उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है और उसी आसक्ति या राग से तृष्णा उत्पन्न होती है। गीता कहती है तात् सानिध्य से काम (तृष्णा ) उत्पन्न होता है और उससे कई क्रोधादि अन्य विधोभ उत्पन्न होते हैं जो कि अन्त में सर्वनाश की ओर ले जाते है (2:62-63) । इसी तथ्य का संपत उत्तराध्ययन सूत्र में राग- द्वेष को फर्मबीज कहकर किया गया है । (32:7-8) वस्तुतः वैयक्तिक जीवन की विषमताएं है - राग-द्वेष की वृत्ति, वैचारिक आग्रह और अधिकार की भावना( संगह वृत्ति) । यही वैयक्तिक जीवन की विषमताएं सामाजिक जीवन में वर्ग- विद्वेष (जा तिवाद), सम्प्रदायवाद और शोषण वृत्ति के रूप में कार्य करती है । हिंसा, वाद-विवाद और संघर्ष इसी का परिणाम है । इस प्रकार राग या आसक्ति एवं तदरनित तृष्णा ही समस्त वैयक्तिक एवं सामाजिक तथा आध्यात्मिक एवं भौतिक तनावों एवं संघर्षों का मूल कारण है । किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि जीवन में विक्षोभों , तनावों
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