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पर यह भान्ति मैंलाई जाती है कि जन 4 जीवन का निर्णय सिखाता है अत: यहाँ इस प्रान्ति का निराकरण कर देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन धर्म के तप-त्याग का अर्थ शारीरिक एवं भौतिक जीवन की अस्वीकृति जान नही है । आध्यात्मिक मूल्यों की स्वीकृति का यह तात्पर्य नहीं है कि शारीरिक एवं भौतिक मूल्यों की पूर्ण तया उपेक्षा की जावे । जैन धर्म के अनुसार शारीरिक मूल्य अध्यात्म के बाधक नहीं, साधक हैं। निशीय भाष्य में वही गया है - कि मोक्ष का साधन ज्ञान है, ज्ञान का साधन शरीर है, शरीर का आधार आहार है । शरीर शाश्वत् आनन्द के के कूल पर ले जाने वाली नौका है। इस दृष्टि से उसका मूल्य भी है, महत्व भी है और उसकी सार-सम्भाल भी करना है। किन्तु ध्यान रहे दृष्टि नौका पर नहीं कूल पर होनाहै, नौका साधन है साध्य नहीं । भौतिक एवं शारीरिक आवश्यक्ताओं की एक साधन के रूप में स्वीकृति जैन धर्म और सम्पूर्ण अध्यात्म विधा का हार्द है । यह वह विभाजन रेखा है जो अबध्यात्म और भौतिकवाद में अन्तर स्पष्ट करती है । भौतिकवाद में भौतिक उपलब्धिया या जविक मूल्य स्वयमेव साध्य हैं, अन्तिम हैं, जबकि अध्यात्म में वे किन्हीं उच्च मूल्यों का साधन है । जैन धर्म की भाषा में कहें तो साधक के द्वारा वस्तुओं का त्याग और वस्तुओं का ग्रहण, दोनों ही संयम ( ममत्व) की साधना के लिए है । जन धर्म की सम्पूर्ण साधना का मूल लक्ष्य तो एक ऐसे निराकुल, निर्विकार, निष्काम और वीत राग मानस की अभिव्यक्ति है जो कि वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के समस्त तनावों एवं संघों को समाप्त कर सके । उसके सामने मूल प्रश्न दैहिक एवं भौ तिक मूल्यों की स्वीकृति या अस्वीकृति नहीं है अपितु वैयक्तिक और सामायिक जीवन में समत्व के संस्थापन का है । अत : पहाँ तक और जिस रूप में दैहिक और भौतिक उपलब्धियाँ उसमें साधक हो सकती है, वहाँ तकों के स्वीकार्य है और जहा तक वे उसमें बाफ हैं, वहीं तक त्याज्य है । भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में इस बात को बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं कि जब इन्द्रियों को का अपने विषयों से सम्पर्क होता है, जब उस सम्पर्क के परिणामस्वम्म सुखद-दुःखद अनुभूति भी होती है और जीवन में यह भय नहीं
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