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का अंकुश नहीं लगा पाया है । भौतिक सुख-सुविधाओं का यह अम्बार आज भी उसके मानस को सन्तुष्ट नहीं कर सका है। सुरक्षा के साधनों की यह बहुलता आज भी उसके मन में अभय का विकास नहीं कर पापी है, आज भी वह उतना ही आशंकित , आतंकित और आक्रामक है, जितना आदिम युग में रहा होगा । मात्र इतना ही नहीं, आज विध्वंसकारी शस्त्रों के निर्माण के साथउसकी यह आक्रामक वृत्ति अधिक विनाशकारी बन गई है । आर्थिक सम्पन्नता की इस अवस्था में भी मनुष्य उतना ही अधिक अर्थ-लोलुप है, जितना कि वह पहले कभी रहा होगा, आज मनुष्य की इस अर्थ-लोलुपता ने मानव जाति को शोषक और शोषित के दो ऐसे वों में बांट दिया , जो एक हो दूसरे को पूरी तरह निगल जाने की तैयारी कर रहे हैं। एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में पागल है तो दूसरा पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए व्या और विधुब्ध । आज विश्व में वैज्ञानिक तकनीक और आर्थिक समृद्धि की दृष्टि से सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू. एस. ए. मानसिक तनावों एवं आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण सबसे अधिक परेशान है, इस सम्बन्धी उसके आकड़े चौकाने वाले हैं । आज मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकथिा सभ्यता के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक सहज, सरल, एवं स्वाभाविक जीवन-शली भी उस छिन गई है, आज जीवन के हर क्षेत्र में कृत्रिमता और प्रमो का बाहुल्य है । मनुष्य आज न तो अपनी मूल प्रवृत्तियों एवं वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया है और न इस तथाकथित सभ्यता के आवरण को बनाये रखने लिए उन्हें सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है । उ सफे भीतर उसका पशुत्व कुलाचे भर रहा है, किन्तु ' बाहर वह अपने को "सभ्य" दिखाना चाहता है । अन्दर वासना की उढ्दाम ज्वालार और बाहर सध्यरित्रता और सदाभ्यता का जन्म जीवन, यही आज के मानप्त की त्रासदी है, पीडा है । आसक्ति, भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की दमित मूल प्रवृत्तियां और उनसे जन्य दोर्षों के कारण मानवता आज भी अभिशप्त है, आज यह दोहरे संघर्षों से गुजर रही है , एक आन्तरिक और दूसरे बाह्य । आन्तरिक संघर्षों के कारण आज उसका मानप्त तनाव-युक्त है, विधुब्ध है, तो बाह्य संघों के कारण समाज जीवन अशान्त और अस्त व्यस्त । आज मनुष्य का जीवन मानसिक तनावों, सविगिक असन्तुलनों और मूल्य संघों से युक्त है । वैज्ञानिक प्रगति से समाज
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