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तुम्हारी तहजीब अपने हाथों से खुदकशी करेगी ।
जो शाख नाजुक पै आशियाना बनेगा न पायेदार होगा ।।
यदि आज हम मानवता की रक्षा करना चाहते हैं तो हमें अहिंसा और पारस्परिक सहयोग के सिद्धान्तों में पूर्ण आस्था प्रकट करनी पड़ेगी । यह मानव जाति का दर्भाग्य है कि एक ओर हम समृद्धि और शति की आकांक्षा रखो है किन्तु दूसरी ओर दूसरों के प्रति हम विश्वास · और सैदह में जी रहे हैं। सभी एक दूसरे से भयभीत हैं। भय जनित हिंसा और संघर्ष के माध्यम से न तो शाति आ सकती है और न ही समृदि । हिंसा और युद्ध के माध्यम से जो शांति प्राप्त की जायेगी वह मरघट की शाति के आलावा कुछ नहीं होगी । पारस्परिक भय और शस्त्रों की दौड का कहीं अन्त नहीं है इसलिए महावीर ने आचारांग में कहा था कि शस्त्र तो ऐक से बढकर एक हो सकते है परन्तु अशस्त्र (अहिंसा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं हो सकता · अत्यि तत्थं परेणपरं नास्थि असत्य परेण परं । विश्व में यदि हमें शाति की स्थापना करनी है और समृद्धि का द्वार उद्घाटित करना है तो हमें पारस्परिक विश्वास, अहिंसा, सहयोग सहअस्तित्व और स्वहितों के बलिदान के सिद्धान्तों को अपनाना होगा । हमें जिस जाति की अपेक्षा है, वह त्याग के मूल्य पर ही आ सकती है , अन्य कोई विकल्प नहीं है । भय के तले हिंसा ही पनपेगी, संघर्ष ही जन्म लेगे जबकि अभय से अहिंसा प्रतिफलित होगी ।
आधुनिक मानस अशात, 'विक्षुब्ध एवं तनावपूर्ण स्थिति में है । बौद्धिक विकास से प्राप्त विशाल ज्ञान राशि और वैज्ञानिक तकनीक से प्राप्त भौतिक सुख-सुविधा एवं आर्थिक समृद्धि मनुष्य की आध्यात्मिक, मानसिक, एवं सामाजिक विपन्नता को दूर नहीं कर पायी है । ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा देने वाले समाधिक विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के होते हुए भी आज का शिक्षित मानव अपनी स्वार्थपरता और भोग-लोलुपता पर विवेक एवं संयम
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