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अनु. विषय
पाना नं.
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८ ये सवसन्न पार्श्वस्थापि, शीलवान् उपशान्त और हेयोपाध्य ज्ञान पूर्व संयभभार्ग में प्रवृति रनेवाले साधुओंछो यरित्रहीन हा उरते है, यह उनठी द्वितीय मालता है, पहली जाता तो छनछी यह है ले ये स्वयं
भ्रष्ट हैं। ८ प्रश्यभ सूचठा भवता ओर प्रश्वभ सूत्र ।
१८५ १० छितने स्वयं संयभायरामें असमर्थ होते हुसे भी
भूसा और उत्तराठी शुद्ध ३५से व्याज्या उरते हैं, उनछो द्वितीय मालता नहीं होती है।
૧૯પ ११ षष्ठ सूत्रधा अवतरा, षष्ठ सूत्र और छाया ।
૧૯૬ १२ तिनेऽसभ्यऽत्वपतित ज्ञानभ्रष्ट भुनि,
द्रव्यतः आयार्याठिो प्राशाभ आहिरते हैं, परंतु वे भावतः अपनी आत्माठो सभ्ययारित्र३५ भोक्षमार्गसे प्रष्ट ही उरते रहते हैं।
૧૯૬ १3 सप्तभ सूचठा अवतराहा, सप्तभ सूत्र और छाया। १४ ठितने परीषहोपससे आटान्त हो वनडे भोहसे
संयभठा परित्याग र देते हैं, उना समछ व्यर्थ ही है।
१८७ १५ अष्टभ सूचछा अवतरा, अष्टभ सूत्र और छाया ।
१८७ १६ भवनडे सुजछे निभित्तो यारिया परित्याग उरते हैं वे
पाभरनोंसे भी निन्हित होते हैं, और वे भेन्द्रियादि पूर्णतिछे भागी होते हैं, संयभस्थानसे गिर भी वे अपने छो पश्ऽित भानते हुसे अपनी प्रशंसा उरते हैं और उत्तम साधुऔठी निन्दा इरते है, उनके उपर असत्य होषोंडा
आरोप उरते हैं। मेधावी भुनिछो मेसा नहीं होना चाहिये। १८७ १७ नवम सूत्रछा अवतरा, नवभ सूत्र और छाया । १८ आरम्भार्थी साधु, हिंसाठे निमित्त दूसरों को प्रेरित उरते हैं, हिंसाठी मनुभोहना रते हैं। तीर्थरोत धर्भ घोर अर्थात् -हुरनुयरशीय है-मेसा भान हर तीर्थरोत धष्ठी उपेक्षा पुरते रहते हैं मेसे मनुष्योंछो तीर्थरोंने विषय अर्थात् डाभभोग-भूछित और वितई अर्थात् षड्व नि छायोंठे उपभईनमें तत्पर छहा है।
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श्री मायासंग सूत्र : 3
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