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________________ तत्त्वार्थस्ने विउस्सग्गे ५ णामकम्म विउस्तम्गे ६ गोयकम्म विउस्सग्गे ७ अंसराय कम्मविउस्सग्गे ८ से तं कम्मविउस्सग्गे, से तं भावविउस्सग्गे, इति, अथ कोऽसौ कर्मव्युत्सर्गः १ कर्मव्युत्पर्गोऽष्ट्रविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानावरणीय कर्मव्युत्सर्गः-दर्शनावरणीयकर्मव्युत्सर्गः वेदनीयकर्मव्युत्सर्गः मोहनीयकर्मव्यु. सर्गः-आयुष्यकर्म व्युत्सर्गः-नामकर्मव्युत्सर्गः गोत्रकर्मव्युत्सर्गः अन्तरायकर्मव्युत्सर्गः इति । एवञ्चतद् द्विविधमपि बाह्याभ्यन्तरश्च प्रत्येकं षविधत्वेन द्वादश पकारकं तो नूतनकर्मास्रवनिरोधहेतुत्वात् संवरकरणं भवति पूर्वोपार्जित कर्मपुञ्जरजोविनन निमित्तत्वाच्च निर्जराहेतुध भवतीति भावः । एवञ्च-ज्ञानावरण दर्शनावरणोः क्षयाद् अनन्तज्ञान-दर्शने भरतः, वेदनीयकर्मक्ष याद् इन्द्रियजनित प्रश्न-कर्म त्सग के कितने भेद है ? उत्तर-कर्मपुत्सर्ग के आठ भेद हैं, यथा-(१) ज्ञानावरणीय कर्म व्युन्सर्ग (२) दर्शनावरणीय कर्म पुत्सर्ग (३) वेदनीय कर्म व्युत्सर्ग (४) मोहनीयकर्मव्युत्सर्ग (५) आयुकमव्यत्सर्ग (६) नामकर्मव्युत्सर्ग (७) गोत्रकर्म व्युत्सर्ग और (८) अन्तराय कम व्युत्सर्ग। इस प्रकार छह बाह्य और छह आभ्यन्तर तप मिलकर बारह होते हैं। यह बारह कर्मों का तप नवीन कर्मों के आस्रव के निरोध का कारण होने से संवर का हेतु है और पूर्वसंचित कर्मों के क्षय का कारण होने से निर्जरा का भी हेतु होता है । जब पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय और नूतन कर्मों के आस्रव का निरोध हो जाता है तो आत्मा की स्वभाविक शक्तियां अभिव्यक्त हो उटती है। ज्ञानावरण के क्षय से अन न्त ज्ञान और दर्शनावरण के क्षय से अनन्त दर्शन की प्राप्ती होती है। પ્ર -કર્મવ્યુત્સર્ગના કેટલાં ભેદ છે? उत्त२-भव्युत्सना 18 से छे, रेम-(१) ज्ञाना१२jीय व्यु. रस (२) शनावरणीय भव्युत्स (3) २६नीयव्युत्सा (४) माउनीय ४०युत्सn (५) मायुयुत्स (6) नाममन्यु सग (७) ४ व्युत्सम (८) अन्तराय: ०युत्सम - આ રીતે છ બાહ્ય અને છ આભ્યનાર તપ મળી ને બાર થાય છે આ બાર પ્રકારના ત પ નવીન કર્મોના આશ્વરના નિરોધના કારણ હોવાથી સંવરના હેતુ છે અને પૂર્વ સંચિત કર્મોનો ક્ષયના કારણ હોવાથી વિજેરાના પણ હેતુ છે. જ્યારે પૂર્વોપ જિત કર્મોને ક્ષય અને નૂતન કર્મોના આસવનો નિરોધ થઈ જાય છે ત્યારે આત્માની સ્વાભાવિક શકિતઓ અભિવ્યકત થઈ જાય છે. જ્ઞાનાવરણના ક્ષયથી અનાજ્ઞાન અને દર્શનાવરણના ક્ષયથી અનન્નદર્શનને श्री तत्वार्थ सूत्र : २
SR No.006386
Book TitleTattvartha Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages894
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size49 MB
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