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दीपिका-निर्युक्ति टीका अ. ७ सू. ६२ आभ्यन्तरतपसो भेदनिरूपणम्
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मूलम् - अभितरए तवे छन्हेि, पायच्छित्त - विणय - वेयावच्च - सज्झाय - झाण-विसग्गभेयओ ॥६२॥
छाया - आभ्यन्तरं तपः षड्विधम्, पायश्चित्त-विनय - वैयावृत्य स्वाध्यायध्यानव्युत्सर्गभेदतः ॥ ६२॥
तत्वार्थदीपिका - पूर्व तावद्वाह्याभ्यन्तरभेदेन तपसो द्वैविध्यस्योक्त त्वात् तत्र पूर्वसूत्रे षडूविधं बाह्य तपः मरूपितम्, सम्पति - षड् विधमेवाऽभ्यन्तरं तपः प्रतिपादयितुमाह- 'अभितरए तवे छबिहे' इत्यादि । तथा च-प्रायवित्तम्, विनयः, वैयावृत्यम्, स्वाध्यायः, ध्यानम्, व् सर्गः इत्येवं पदविधं
इस प्रकार छह प्रकार के बाह्य तप से संसार के प्रति आसक्ति का त्याग होता है, शारीरिक लघुता आती है, इन्द्रियों पर विजय प्राप्ती होती है, संयम की रक्षा होती है और ज्ञानावरण आदि कर्मों की निर्जरा होती है ॥ ६१॥
'अभिंतरए तवे छबिहे' इत्यादि.
सूत्रर्थ - आभ्यन्तर तप के छह भेद हैं- (१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैयात्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग ॥ ६२ ॥
तत्त्वार्थदीपिका --पहले बाह्य और आभ्यन्तर ये तप के दो भेद कहे थे, इसमें से पूर्व सूत्र में बाह्य तप के छह भेदों का निरूपण किया गया अब आभ्यन्तर तप के छह भेदों का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं
(१) प्रायश्चित (२) विनय (३) वैयावत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग, यह छह प्रकार का आभ्यन्तर तप हैं। ये प्रायश्चित्त થાય છે, શારીરિક લઘુતા આવે છે, ઇન્દ્રિયા પર વિજય પ્રાપ્ત થાય છે, સયમનું રક્ષણ થાય છે અને જ્ઞાનાવરણ વગેરે આઠ કર્મોની નિરા थाय छे. ॥११॥
तर तवे छत्र हे' इत्यादि
सूत्रार्थ-आस्यन्तर तपना छ लेह छे - ( १ ) आयश्चित्त (२) विनय (3) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (4) ध्यान भने (६) व्युत्सर्ग. ॥२॥
તત્વાથ દીપિકા—પહેલા ખાદ્ય અને આભ્યન્તર એમ તપના બે ભેદ કહેવામાં આવ્યા હતા. આમાંથી પૂર્વ સૂત્રમાં બાહ્ય તપના ભેદોનું નિરૂપણુ કરવામાં આવ્યુ. હવે આભ્યન્તર તપના છ ભેદ્દેનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કહીએ છીએ
(१) आयश्चित्त (२) विनय (3) वैयावृत्य (४) स्वाध्याय (५) ध्यान અને (૬) વ્યુત્સગ, આ છ પ્રકારના આભ્યન્તર તપ છે. આ પ્રાયશ્ચિત્ત વગેરે
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૨