________________
AAAAAAAAAAAAAAAAAnaamann.nana......nnnnn...
तत्त्वार्थसूत्रे नादीनां ज्ञानादौ परिणत्यभावात् , विषयग्रहणार्थ परिणतिमासादयतामेव-इन्द्रियत्वव्यपदेशात् । शरीरस्थितैरेव स्पर्शन-रसन-ध्राणैरुत्कृस्यतो योजननवकपरिच्छिन्नाद्, देशादागताना स्पर्शरसगन्धानां समुपलभ्यमानत्वात् , स्पर्शन-रसन-ध्राणेन्द्रियाणां प्राप्यकारित्वमवगन्तव्यम् ।
वह्नि-चन्दनादिभिश्चोपधाताऽनुग्रहदर्शनात् प्राप्यकारित्वमेतेषां प्रत्यक्षसिद्धम् श्रोत्रेण च स्वपरिणाममजहतामुत्कृष्टतो योजनद्वादशकपरिच्छिन्नप्रदेशाद् समागतानां शब्दानां गृह्यमाणत्वात् श्रोत्रस्यापि प्राप्यकारित्वमवगन्तव्यम् ।
तत्र-चक्षुरिन्द्रियं वक्ष्यमाणमनो रूपं नो इन्द्रियञ्चाऽप्राप्यकारि वर्तते, विषयदेशमप्राप्यैव रूपादिकं गृह्णाति । अप्राप्यकारित्वञ्च-चक्षुषः प्रत्यक्षसिद्धम् । विषयाऽनुग्रहोपघातशून्यत्वात् नहिचक्षुषो जलानलशूलायवलोकनेन दाहक्लेदनोत्पाटनादयो भवन्ति । शरीरदेशस्थितस्य च चक्षुषो योग्यदेशस्थितस्यैव रूपादेर्ग्रहणयोग्यता स्वभावसिद्धा वर्त्तते । होता है, वैसे वाक् आदि द्वारा उत्पन्न होने वाले वचन आदि की परिणति ज्ञान में नहीं होती। यहाँ तो उन्हें ही इन्द्रिय कहा गया है जो अपने विषय को ग्रहण करने में परिणत हों अर्थात् ज्ञान के साधन हों।
उत्कृष्ट नौ योजन दूर देवा से आये हुए स्पर्श, रस और गंध को स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रिय ग्रहण कर सकती है और शरीर में स्थित रह कर ही वे अपने विषय को ग्रहण करती हैं । ये इद्रियाँ प्राप्यकारी हैं अर्थात् अपने विषय को स्पर्श करके जानती हैं । इन इन्द्रियों का अग्नि आदि से उपधात और चन्दन आदि से अनुग्रह देखा जाता है, अतः इनकी प्राप्य कारिता प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। शब्द यदि अपने परिणमत का त्याग न कर दे तो बारह योजन दूर से आया हुआ श्रोत्र द्वारा ग्राह्य होता है, अतः श्रोत्रेन्द्रिय भी प्राप्यकारी है।
चक्षु इन्द्रिय और आगे कहा जाने वाला इन्द्रिय रूप मन ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। ये विषय को प्राप्त हुए बिना ही ग्रहण कर लेते है । चक्षु की अप्राप्यकारिता प्रत्पक्ष से सिद्ध है। क्योंकि बह विषयकृत उपघात और अनुग्रह से रहित है । जब हम नेत्र के द्वारा जल, अग्नि या शूल आदि देखते हैं तो दाह, गीलापन या उत्पाटन (भेदन) आदि नहीं होते । शरीर देवा में स्थित नेत्र में योग्य देश में स्थित रूप आदि को ग्रहण करने की योग्यता स्वभाव से ही सिद्ध है । नेत्र आवृत (ढंके हुए) पदार्थ को नहीं जानता, अतएव उसे भी प्राप्यकारी मानना चाहिए, ऐसा नहीं कहा जा सकता। ऐसा कहा जाय तो जैसे दीवाल आदि द्वारा व्यवहित पदार्थ को नेत्र ग्रहण नहीं कर सकता, उसी प्रकार काच आदि द्वारा व्यवहित पदार्थ को भी ग्रहण नहीं करना चाहिए । किन्तु उसे तो नेत्र ग्रहण कर लेता है। इसके अतिरिक्त इस युक्ति से तो मन भी, जिसे समस्तवादी निर्विवाद रूप से अप्राप्यकारी मानते हैं, अप्राप्यकारी नहीं रहेगा, क्योंकि वह भित्त आदि से आवृत वस्तु का ग्रहण नहीं करता है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧