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________________ तत्त्वार्यसूत्रे तस्मात् स्पर्शनादिना इन्द्रियेण करणभूतेन ज्ञातुरात्ममनोऽस्तित्वमवगम्यते । तत्खलु--इन्द्रियं पञ्चविधम् । स्पर्शन-रसन - घ्राण - चक्षुः - श्रोत्र भेदात् । उपयोगकरणात् न कर्मेन्द्रियाणां वाक् -- पाणिपायूपस्थानमत्र ग्रहणम् किन्तु-ज्ञानेन्द्रियाणामेवेति भावः । मनस्तु - अनिन्द्रियं वर्तते ॥१७॥ तत्त्वार्थ नियुक्तिः-पूर्व जीवस्य ज्ञानदर्शनोपयोगरूपं लक्षणं प्ररूपितम् तथाविधश्चोपयोगः इन्द्रियद्वारेणैव संभवति तस्मात् विभागप्रदर्शनपूर्वकमिन्द्रियं प्ररूपयति । यद्वा—पूर्व पृथिव्यायेकेन्द्रिय द्वीन्द्रियादयो जीवाः प्ररूपिताः अतस्तत्र कियन्ति इन्द्रिपाणि १ कतिविधानि वा १ तेषां वा मध्ये कस्योपयोगिनो जीवस्य किमिन्द्रियं भवतीत्याकांक्षायामाह अथवा--जीवानां चेतनारूपं ज्ञानमिन्द्रियद्वीरेणैव भवति तानि चेन्द्रियाणि न सर्वाणि सर्वस्य भवतीति विभागप्रदर्शनपूर्वकमिन्द्रियाणि संख्यया नियमयितुमाह यद्वा-जीवानामुपयोगोऽन्वयिलक्षणमुक्तम् तस्योपयोगस्य निमित्तानि प्रतिपादयितुमाह-- "इंदियं पंचविह" इति ॥ इन्दतीति–इन्द्रो जीवः सर्वद्रव्येषु ऐश्वर्ययोगात् , इन्दनाद्वा परमैश्वर्ययोगादिन्द्रो जीवः सर्वभोगोपमोगाधिष्टानसर्वद्रव्य विषयैश्वर्ययोगात् । रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादिविषयेषु वा परमैश्वर्यपदार्थों के ग्रहण में जो सहायक निमित्त हो वह इन्द्रिय है। इस प्रकार इन्द्र - जीव का लिंग होने से इन्द्रिय कहा जाता है । अथवा लीन – छिपे हुए पदार्थ (आत्मा) का जो ज्ञान करवाता है उसे इन्द्रिय कहते हैं । आत्मा अति सूक्ष्म है उसका अस्तित्व इन्द्रियों के द्वारा ही विदित होता है । जैसे धूम अग्नि के बिना न होने के कारण अग्नि के जानने में कारण होता है, उसी प्रकार स्पर्शन आदि करण की अर्थात् आत्मा के ज्ञापक होते हैं; क्योंकि जब स्पर्शन आदि करण हैं तो कर्ता अवश्य होना चाहिए; कती के अभाव में करण नहीं होता । इस प्रकार स्पर्शनादि करणों से कता- आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है । स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के भेद से इन्द्रियाँ पाँच प्रकार की हैं । यहाँ उपयोग का प्रकरण होने से परपरिकल्पित वाक् (वचन), पाणि (हाथ), पाद (पैर), बायु (गुदा) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) को इन्द्रिय नहीं माना है। यहाँ ज्ञान के कारणों को ही इन्द्रिय कहा गया है । मन अतिन्द्रिय है ॥१७॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले जीव का ज्ञान दर्शन-उपयोग रूप लक्षण बतलाया गया है । छमस्थ जीवों का वह उपयोग इन्द्रियों द्वारा ही होता है । अतएव भेद दिखलाकर इन्द्रियों की प्ररूपणा करते हैं। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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