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________________ तत्त्वार्थसूत्रे छाया-अथ कस्तावदौपशमिकः ? उपशमिकः द्विविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-औपशमिकश्च उपशमनिष्पन्नश्च अथ कस्तावदौपशमिकः? मोहनीयस्य कर्मण उपशमः स एष तावदौपशमिकः। अथ कस्तावद् उपशमनिष्पन्नः? उपशमनिष्पन्नः, अनेकविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-उपशान्तक्रोधः, यावदुपशान्तलोभः उपशान्तप्रेमा,उपशान्तद्वेषः उपशान्तदर्शनमोहनीयः, उपशान्तमोहनीयः उपशमितसम्यक्त्वलब्धिः उप शमिता चारित्रलब्धिः उपशान्तकषायच्छमस्थवीतरागः, स एष उपशमनिष्पन्नः स एष औपशमिक इति, पूर्वोक्तस्वरूपस्य क्षायिकस्य भावस्य नवभेदाः सन्ति, तद्यथा-ज्ञानं १, दर्शनं २, दानं ३, लाभः ४ भोगः ५ उपभोगः ६, वीर्यम् ७, सम्यक्त्वम् ८, यथाख्यातचारित्रञ्चेति तत्र सकलज्ञेयमाहिसमस्तज्ञानावरणक्षयजन्यं केवलज्ञानमत्र ज्ञानपदेन गृह्यते नान्यत्, ज्ञानमसंभवात् दर्शनञ्चात्र समस्तदर्शनावरणक्षयजन्यं केवलदर्शनरूपं गृह्यते न तदन्यच्चाक्षुषादिकमसंभवात् , दानश्च स्वस्यातिसर्गरूपमवसेयम् तच्च सकलदानान्तरायकर्मक्षयात् त्रिभुवनविस्मयाधायकं यथेप्सितमर्थिनो न कदाचित् प्रतिहन्यते प्रयच्छत इति लाभश्चान्यस्मात् समस्तसाधन-प्राप्तिरूपो बोध्यः, स च समस्तलाभान्तरायकर्मक्षयादचिन्त्यमाहात्म्यविभूतिरूप आविर्भवति ये यत् प्रार्थ्यते तत् सर्वमेव लभ्यते नतु प्रतिषिध्यते भोगश्च शुभविषयकसुखानुभवरूपो बोध्यः स च सकलभोगान्तरायकर्मक्षयाद् यथेष्टमुपपद्यते न तु तस्य कदाचित् प्रतिबन्धो भवति नतु अभिलषितं न भवतीति, सत्यां विषयसम्पदितथोत्तरगुणप्रकर्षादविषयसम्पदनुभवरूप उपभोगः स च समस्तोपभोगान्तरायकर्मक्षये हनीय उपशान्त सम्यक्त्वलब्धि, उपशान्ताचारित्रलब्धि, उपशान्त कषाय छमस्थवीतराग । यह उपनाशमनिष्पन्न और औपशामिक भाव का निरूपण समाप्त हुआ। जिसका स्नरूप पहले कहा जा चुका है उस क्षायिक भाव के नौ भेद हैं , यथा-(१) ज्ञान (२) दर्शन (३) दान (४) लाभ (५) भोग (६) उपभोग (७) वीर्य (८)सम्यक्त्व और (९) यथाख्यातचारित्र । समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानने वाला एवं सम्पूर्ण ज्ञानवर्णीय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला केवलज्ञान ही यहाँ 'ज्ञान' शब्द से ग्रहण करना चाहिए केवलज्ञान के अतिरिक्त शेष चार ज्ञान क्षायिक जहीं, क्षायोपज्ञामिक हैं, क्योंकि वे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । दर्शन शब्द से यहाँ सम्पूर्ण दर्शनावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला केवल दर्शन ही समझना चाहिए, चक्षुदर्शनादि नहीं। चक्षुर्दर्शनादि क्षायिक नहीं हो सकते । वे क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं । 'स्व' का उत्सर्ग करना दान कहलाता है। यह दान सम्पूर्ण दानान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है, तीनों लोकों के जीवों को चकित कर देने वाला होता है और अर्थी जनों के द्वारा कभी प्रतिहत नहीं होता। ___ दूसरे से समस्त साधनों की प्राप्ति होना लाभ है । वह सम्पूर्ण लाभान्तराय, कर्म के क्षय से अचिन्तनीय माहात्म्य एवं विभूति रूप में उत्पन्न होता है । जिसकी भी इच्छा की जाती है, इसके द्वारा उस सब की प्राप्ति हो जाती है, कभी कहीं निषेध नहीं होता। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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