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________________ MMMMMMM ६७८ तत्त्वार्थसूत्रे तत्त्वार्थनियुक्तिः -- पूर्व तावद् भरतादि क्षेत्रेषु मनुष्याणामुत्पत्तिः प्ररूपिता, सम्प्रतितेषु क्षेत्रेषु मनुष्याणां पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाञ्च कियन्तं कालं स्थिति भवतीति शङ्का समाधातुमाह-'तत्थ मणुस्साणं तिरिक्खजोणियाणं य ठिई तिण्णि पलिओवमाई अंतोमुहुत्त उक्कोसनहणिया-" इति ।। तत्र तेषु भरतादिक्षेत्रेषु मनुष्याणां तिर्यग्योनिकानाञ्च गर्भव्युत्क्रान्तिकचतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां स्थितिः आयुःपरिमाणं त्रीणि पल्योपमानि अन्तर्मुहूर्तञ्च उत्कृष्टजघन्यिका भवति । तत्रोत्कृष्टा स्थिति स्त्रिपल्योपमा जघन्या च स्थितिरन्तर्मुहूर्तपरिमाणा भवतीति भावः । तत्र मनुष्याणां तिर्यग्योनिकानाञ्च द्विविधा स्थितिः प्रज्ञप्ता, भवस्थितिः कायस्थितिश्च । तत्र भवस्थिति स्तावद् मनुष्यजन्म प्राप्य-तिर्यग्जन्म वा लब्ध्वा कियन्तं कालं जीवति जीवो जघन्येन उत्कृष्टेन वा इत्येवं रूपा बोध्या । __ कायस्थितिः पुनर्मनुष्यो भूत्वा तिर्यग्योनिर्वा भूत्वा मरणञ्च प्राप्य भूमौ मनुष्येष्वेव मनुष्यः, तिर्यग्योनिष्वेव तिर्यग्योनिश्च निरन्तरतया कतिवारं समुत्पद्यते इत्येवं रुपाऽवगन्तव्या तत्र-मनुष्याणां त्रिपल्योपमान्तर्मुहः परापरे भवस्थिती बोध्ये कायस्थितिस्तु-सप्ताष्टौवा भवग्रहणानि नैरन्तर्येणउत्कृष्टतो बोध्या। तत्वार्थनियुक्ति-पहले भरत आदि क्षेत्रों में मनुष्यों की उत्पत्ति का निरूपण किया गया है। अब उन क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों और पंचेन्द्रिय तिर्यचों की आयु कितनी होती है, इस शंका का समाधान करने के लिये कहते हैं - उन भरत आदि क्षेत्रों में मनुष्यों की तथा गर्भज चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचों की आयु उत्कृष्ट तीन पल्योपम की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की होती है। मनुष्यों और तिर्यंचों की स्थिति दो प्रकार की कही गई है-भवस्थिति और कायस्थिति । मनुष्य का, या तियेच का जन्म पाकर जीव उस जन्म मे जितने काल तक जीवित रहता है, वह उसकी भवस्थिति कहलाती है। कोई जीव मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होकर जीवित रहता है, फिर मृत्यु होने पर मरता है और पुनः मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होता है। इस प्रकार जितने काल तक वह लगातार मनुष्य भव करता है, उस कालमर्यादा को कायस्थिति कहते हैं । इसी प्रकार तिर्यंच जितने भवों तक लगातार तिर्यंचपर्याय में बना रहता है, वह उसकी कायस्थिति कहलाती है। यह कायस्थिति मनुष्यों और तिर्यंचों की ही होती है, क्योंकि इन्हीं के लगातार अनेक भव हो सकते हैं। देवों और नारों के लगातार अनेक भव नहीं होते हैं अर्थात् देव मरकर पुनः देव और नारक मरकर पुनः नारक नहीं होता, अतएव उनकी भवस्थिति से भिन्न कोई कायस्थिति नहीं है। जितनी भवस्थिति है उतनी ही इनकी कायस्थिति समझनी चाहिए । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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