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________________ तत्त्वार्यसूत्रे तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व भरतैरवतादिक्षेत्रेषु मनुष्याणामुपभोगायुः शरीरोत्सेधादिविषयेउत्स-पिण्यवसर्पिणी प्रभृतिकालविशेषनिमित्तकवृद्धिहासादिकं प्ररूपितम् , सम्प्रति-हैमवत-१ हरिवर्ष-२ रम्यकवर्ष-३ हैरण्यवर्ष-४ देवकुरू-५ त्तरकुरुषु-६ महाविदेहयोश्च मनुष्याणां स्थितिं प्ररूपयितुमाह । “हिमवयाइ-” इत्यादि । हैववताद्युत्तरकुर्वन्तेषु हैमवत-हरिवर्ष-रम्यकवर्ष-हरण्यवत-देवकुरू-त्तरकुरुषु दक्षिणोत्तरेषु यथाक्रमं मनुष्या एक-द्वि-त्रिपल्योपमस्थितिका भवन्ति । तत्र-हैमवत हैरण्यवतयोः दक्षिणोत्तरयोः मनुष्या एकपल्योपमस्थितिका भवन्ति । हरिवर्ष-रम्यकबर्षयोश्च मनुष्यास्त्रिपल्योपमस्थितिका भवन्ति, किन्तु-महाविदेहेषु पूर्वविदेहेषु-अपरविदेहेषु च मनुष्याः संख्येयकालस्थितिका भवन्ति ॥३०॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वं भरतै-रवतवर्षयोरुत्सपिण्यवसर्पिणीकाल विशेषनिमित्तकेषु मनुष्याणा मुपभोगायुः शरीरोत्स्येधादिषु वृद्धिहासौ भवतः, हैमवत-हरिवर्ष-महाविदेह-रम्यकवर्ष-हैरण्यवतेषु च उत्सपिण्यवसर्पिण्योरभावेन तेषु-सुषमदुष्षमायाः सुषमायाश्च कालविशेषरूपायाः सदावस्थितत्वान्न तत्र-मनुष्याणामुपभोगादिषु वृद्धिहासौ भवत इति प्ररूपितम् , सम्प्रति-तासु-पञ्चसु भूमिषु देवकुरूत्तरकुरुषु च केवलं मनुष्याणामायुष्ये तारतम्यं न्यूनाधिकत्वरूपं प्रति विशेष प्ररूपयितुमाह तत्त्वार्थदीपिका-पहले कहा जा चुका है कि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के निमित्त से भरत और ऐरवतक्षेत्रों में मनुष्यों के उपभोग, आयु, तथा शरीर की अवगाहना आदि में वृद्धि औऔर हानि होती रहती है । अब हैमवत, हरिवर्ष राम्यकवर्षे हैरण्यवत, देवकुरु, उत्तर कुरु तथा पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह में मनुष्यों की स्थिति की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं हैभवत से लेकर उत्तर कुरु पर्यन्त अर्थात् हैमवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष हैरण्यवत, देवकुरु और उत्तर कुरु क्षेत्रों में यथाक्रम से मनुष्य एक, दो और तीन पल्योपम की आयु वाले होते हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में मनुष्यों की आयु एक पल्योपम की होती है। हरिवर्ष एवं रम्यक् वर्ष में मनुष्य तीन पल्योपम की आयु वाले होते हैं । परंतु महाविदेह क्षेत्र में पूर्वविदेह क्षेत्र में एवं अपर विदेह में संख्यात काल को स्थिति वाले होते हैं ॥३०॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-इसके पहले भरत एवं ऐरवत में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालविशेष निमित्तक मनुष्यों के उपभोग आयु शरीरका उत्सेध आदि में वृद्धि हास कहा एवं हैमवत-हरिवर्ष महाविदेह-रम्यकवर्ष एवं हैरण्यवत क्षेत्र में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के अभाव होने से उन क्षेत्रों में सुषम दुष्षम, सुषमादि काल विशेष रूप सदा अवस्थित होने से उन क्षेत्रों में मनुष्यों के उपभोग आदि में वृद्धि एवं हास नहीं होता है यह प्ररूपित किया हैं ___अब पांच क्षेत्रों में एवं देवकुरु उत्तर कुरु क्षेत्रों में केवल मनुष्यों के न्यूनाधिकत्वरूप विशेष प्रतिपादन करने के लिये कहते हैं શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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