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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५सू. २६ भरतवर्षस्य विष्कम्भवाहल्यनिरूपणम् ६४९ कइ महाणईओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! चत्तारि महाण ईओ, पण्णत्ताओ, तं जहागंगा-सिंधू-रत्ता-रत्तवई, तत्थ णं एगमेगा महाणई चउद्दसहिं सलिलासहस्सेहि समग्गा पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं लबणसमुदं समप्पेइ-" इति । जम्बूद्वीपे-भरतैरवतयोर्वर्षयोः कति महानद्यः प्रज्ञप्ताः-१ गौतम-! चतस्रो महनद्यः प्रज्ञताः, तद्यथा-गङ्गा-१ सिन्धु-२ रक्ता-३ रक्तवती-४ तत्र खलु । एकैका महानदी चतुर्दशभिः सलिलासहस्रैः समग्रा पूर्वपश्चिमं खलु लवणसमुद्रं समर्पयति ।। इति, ॥ २५ ॥ मूलसूत्रम् - "भरहवासस्स विक्खंभे पंचछव्वीसे जोयणसयाई छच्च एगृणवीसइभाया-" ॥२६॥ छाया-"भरतवर्षस्य विष्कम्भः पञ्चषइविंशतिर्योजनशतानि षट्च एकोनविंशति भागाः-" ॥२६॥ - तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व जम्बूद्वीपस्य भरतादिक्षेत्रेषु गङ्गादिमहानदीनां स्वरूपं प्ररूपितम् सम्प्रति भरतक्षेत्रस्य विस्ताररूपवाहल्यं विष्कम्भापरपर्यायं प्ररूपयितुमाह-"भरहवासस्स विक्खंभे-" इत्यादि। - भरतवर्षस्य भरतक्षेत्रस्य विष्कम्भो-विस्तारस्तावत् । योजनानां पञ्चशतानि षइविंशतिः षट्चैकोनविंशतिभागाः सन्ति तथाच-पइविंशत्यधिकपञ्चशतयोजनानि षट्चैकोनविंशति भागः ५२६ , भरतक्षेत्रस्य विष्कम्भो वर्तते ॥२६॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वसूत्रे-गङ्गा-सिन्ध्वादिमहानदीनां भरतादिक्षेत्रविभाजकहिमवदादिवर्षधरपर्वतादीनाञ्च स्वरूपं प्ररूपितम् सम्प्रति-भरतवर्षस्य विष्कम्भं प्ररूपयितुमाह-'भरत जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के छठे वक्षस्कार के सूत्र १२५ में कहा है-'जम्बूद्वीप के अन्दर भरतवर्ष और ऐरवत वर्ष में कितनी महानदियाँ कही गई हैं ? उत्तर-गौतम ! चार महानदियाँ कही गई हैं, इस प्रकार हैं- गंगा, सिन्धु, रक्ता और रक्तवती । इनमें से प्रत्येक महानदी चौदह हजार नदियों से युक्त होकर पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में जा मिलती है ॥२५॥ सूत्रार्थ- 'भरहवासस्स' इत्यादि । सूत्र. २६ भरतवर्ष का विष्कंभ पाँच सौ छब्बीस योजन एवं एक योजन के उन्नीस भाग में से छह भाग ( ५२६६) हैं ॥२६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में जम्बूद्वीपके भरत आदि क्षेत्रोमें गंगा आदि जो महानदियाँ प्रवाहित हो रही हैं, उनके स्वरूप का निरूपण किया गया । अब भरतक्षेत्र का विस्तार कहते हैं भरतक्षेत्र का विष्कंभ अर्थात् विस्तार पाँचसौ छब्बीस योजन और एक योजन का ६ भाग है ॥२६॥ १९ तत्त्वार्थनियुक्ति-इससे पहले के सूत्र में गंगा सिन्धु आदि महानदियों का तथा भरत आदि क्षेत्रों का विभाग करने वाले हिमवन्त आदि वर्षधर पर्वतों का स्वरूप बतलाया गया है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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