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________________ दीपिका नियुक्तिश्च अ०१ जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ४३ लक्षणां प्रतिपद्यमानः सकलभावधारत्वं बिभर्तीति नानेन विना कस्यचिद् भावस्य निष्पत्तिरिति, तत्र सेधनयोग्यः परिणामो भव्यः, अभव्यः पुन र्न कदाचित् सेधनयोग्यः परिणाम इति, एवं सन्निपातः प्रयोजनमस्य भावस्येति सांनिपातिको भावोऽवसेयः एते च षड्भावाः जीवपर्यायविवक्षयां जीवस्य स्वरूपमिति व्यपदिश्यन्ते, क्रमभाविनोऽवस्थाविशेषाः पर्यायाः कथ्यन्ते यथा मृतिकाया घटकपाल कपालिका शरावादयः पर्याया भवन्ति, द्रव्यविवक्षायां तु मृत्तिका स्वरूप एव भावः द्रवति गच्छति, तांस्तान् पर्यायान् इति द्रव्यपदव्युत्पत्तेः तथाच कर्मोदये सति जायमानो भाव औदयिको व्यपदिश्यते तपःसंयमवैराग्यादिनाऽनुदयप्राप्तिलक्षणे कर्मोपशमे सति जीवस्योत्पद्यमान औपशमिको भावः यथा जलस्य कलुषताऽऽपादके पङ्के कतकादिद्रव्यसम्बन्धादधः स्थिते सति जलस्य स्वच्छता भवति, एवमार्हततत्त्वानुसन्धानवशाद् ज्ञानावरणादिकर्ममलक्षयेण नैर्मल्यविधायकः क्षायिको भावो व्यपदिश्यते कर्मणः क्षये सति उत्पद्यमानो भावःक्षायिक उच्यते इत्यर्थः यथा कर्दमात्पृथग्भूतस्य निर्मलस्य स्फाटिकादिपात्रान्तर्वर्तिनः पयसः स्वच्छता भवति यथा मोक्षः, कर्मोपशमाद्यनपेक्षः उत्पन्न भाव को यदि पारिणामिक भाव माना जाय तो उत्पत्ति से पहले उसकी अनुत्पत्ति माननी होगी, क्योंकि जो उत्पन्न नहीं होता, उसी की अनुत्पत्ति होती है । इस प्रकार मानने से भी पूर्वोक्त दोष की प्राप्ति होती है । यही बात भव्यत्व और अभव्यत्व के विषय में भी समझनी चाहिए । अतएव यही मानना उचित है कि पारिणामिक भाव अनादि काल से प्रसिद्ध है और वही समस्त भावों का आधार है । उसके बिना किसी भी भाव की निष्पत्ति नहीं होती। सिद्ध होने योग्य भाव भव्यत्व और सिद्ध न होने योग्य भाव अभव्यत्व कहलाता है। सन्निपात जिसका प्रयोजन हो वह सान्निपातिक भाव कहलाता है । यह छहों भाव जीव पर्याय की विवक्षा होने पर जीव के स्वरूप कहलाते हैं। क्रम से होनेवाली अवस्थाएँ पर्याय कहलाती हैं, जैसे मृत्तिका की घट, कपाल(ठीकरा), कलापिका, शराब(सिकोरा) आदि पर्याय हैं । जो एक के पश्चात् दूसरे पर्याय को प्राप्त होता रहता है, वह द्रव्य है, जैसे मृत्तिका । __इस प्रकार कर्म का उदय होने पर उत्पन्न होने वाला भाव औदयिक कहलाता है। तष, संयम, वैराग्य आदि के कारण अनुदय रूप कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाला भाव औपशमिक कहलाता है। जैसे जल में मैलापन उत्पन्न करने वाला कीचड़ जब फिटकडी आदि द्रव्यों के सम्बंध से नीचे बैठ जाता है तो जल स्वच्छ हो जाता है। अर्हन्त भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों के अनुसंधान से ज्ञानावरण आदि कर्ममल का क्षय हो जाने पर निर्मलता उत्पन्न करने वाला भाव क्षायिकभाव कहलाता है । तात्पर्य यह है कि कर्म के क्षय से जो भाव उत्पन्न होता है, वह क्षायिक भाव कहलाता है। जैसे कचरे पृथक् हुए, निर्मल एवं स्फटिक पात्र के अंदर रखे हुए जल में मलीनता का अत्यन्त अभाव हो जाता है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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