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________________ दीपिकानियक्तिश्च अ. ५ सू. १९ जम्बूद्वीपादिद्वीपसमुद्रनिरूपणम् ६१७ द्वीप:- ४ वारुणीवरोदनामा समुद्रश्च क्षोरवरनामा द्वीप:- ५ क्षीरवरोदनामा समुद्रश्च, घृतवरनामा द्वीप:- ६ घृतवरोदनामा समुद्रश्च । इक्षुवरनामा द्वीप:- ७ इक्षुवरोदनामा समुद्रश्च, नन्दीश्वरवर नामा द्वीपः-८ नन्दीश्वरवरोद मामा समुद्रश्व, अरुणबर नामा द्वीप:- ९ अरुणवरोद नामा समुद्रश्चेत्येवं रीत्या स्वयम्भूरमणपर्यन्ता असंख्येया द्वीपसमुद्रा अवगन्तव्याः ॥ १९ ॥ तवथानिर्युक्तिः - इतः पूर्वे रत्नप्रभादि पृथिवीषु स्थितानां सीमन्तकादिनरकावासनिवासिनां जीवानां नरकेषु स्थिति रायुः परिमाणरूपा प्ररूपिता, सम्प्रतिहि - भूमिप्रस्तावाद् जम्बूद्वीपादि द्वीपानां - लवणोधदिप्रभृति समुद्राणाञ्च स्वरूपाणि प्ररूपयितुमाह – “जंबूद्दीव लवण समुद्दा नामाओ असंखेज्जा दीवसमुद्दा -" इति । जम्बूद्वीप लवणसमुद्रादिनामानोऽसंख्येया द्वीपसमुद्राः सन्ति । तत्र - जम्बूद्वीपादयो द्वीपा : लवणोदधिप्रभृतयः समुद्राश्वा ऽसंख्येयास्तत्तन्नामधेयाः सन्ति । तथाचा संख्येयपदेनाऽत्र सार्द्धद्वयोद्धारसागरोपमरूपमसंख्यातत्वं गृह्यते । तच्चोद्धारसागरोपमं उद्धारपल्योपमै निष्पद्यते, तथाहि - पल्यं स्यात् यत् आयामविष्कम्भाभ्यां उर्वोच्चत्त्वेन च प्रत्येकं योजनपरिमितम् साधिक त्रिगुणपरिक्षेपयुक्तं च भवेत्, तच्च उत्कृष्टेन सप्तरात्रप्ररूढबालायैः संनिचितमेतादृशं वर नामक द्वीप, वारुणीवरोद नामक समुद्र ( ५ ) क्षीरवर नामक द्वीप, क्षीरवरोद नामक समुद्र (६) घृतवर नामक द्वीप, घृतवरीद नामक समुद्र (७) इक्षुवर नामक द्वीप, इक्षुवर नामक समुद्र (८) नंदीश्वर नामक द्वीप, नंदीश्वरवरोद नामक समुद्र ( ९ ) अरुनामवरणक द्वीप, अरुणवरोद नामक समुद्र इस प्रकार एक द्वीप और एक समुद्र, इस क्रम से स्वयंभूरमण द्वीप और स्वयंभूरमण समुद्र तक असंख्यात द्वीप - समुद्र समझने चाहिए || १९ ॥ तत्त्वार्थनियुक्ति - इससे पूर्व रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में स्थित सीमन्तक आदि नारका - वासों में निवास करने वाले नारक जीवों की स्थिति अर्थात् आयु के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है । अब भूमि का प्रकरण होने से जम्बूद्वीप आदि द्वीपों का तथा लवणोदधि आदि समुद्रों का स्वरूप बतलाने के लिए कहते हैं । जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं । तात्पर्य यह है कि जम्बूद्वीप आदि द्वीप असंख्यात हैं और लवणोदधि आदि समुद्र भी असंख्यात हैं । असंख्यात में तरतमता के भेद से असंख्यात प्रकार हो सकते हैं । यहाँ असंख्यात पद से अढ़ाई उद्धार सागरोपम की समग्रराशि के बराबर असंख्यात का ग्रहण करना चाहिए । यह उद्घार सागरोपम उद्धार पल्योपम से निष्पन्न होता है । जैसे - एक कोई पल्य आधारपात्र - जो एक एक योजन आयामविष्कम वाला अर्थात् एक योजन का लम्बा और एक योजन का चौडा तथा एक योजन का गहरा तथा इस माप से कुछ अधिक हीनगुनी परिधि गोलाई वाला ७८ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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