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________________ दीपिका नियुक्तिश्च अ० ५ सू० १७ नारकाणामायुः परिमाणरूपास्थितेनिरूपणम् ६११ उपमानमुपमा- सादृश्यं, सागरेणोपमा सागरोपमा, एका सागरोपमा यस्याः स्थितेः साएकसागरोपमा । एवं- त्रिसागरोपमादिष्वपि विग्रहोsवगन्तव्यः । तेषु नरकेषु मद्यपायिनः - मांसभक्षकाः-असत्यवादिनः- परस्त्रीलम्पटा : - महालोभाभिभूताः - स्त्री - बाल - वृद्ध महर्षि विश्वासघातकाः जिनधर्मनिन्दकाः- रौद्रध्यानाविष्टाः इत्यादिरीत्या पापकर्मानुष्ठातारः समुत्पद्यन्ते । तेचोर्ध्वपादाः अधोमुखाः सर्वेऽपि समुत्पद्या - वः पतन्ति, दीर्घकालं दुःखान्यनुभवन्ति च । किञ्चा - ऽसंज्ञिनः-प्रथमनरकमेव गच्छन्ति, सरीसृपाः - द्वितीयनरकपर्यन्तमेव गच्छन्ति, पक्षिण स्तृतीयनरकपर्यन्तमेव गच्छन्ति, सिंहाश्चतुर्थनरकपर्यन्तमेव गच्छन्ति, भुजगः पञ्चम नरकपर्यन्तमेव गच्छन्ति, स्त्रियः षष्ठ नरकपर्यन्तमेव गच्छन्ति । मनुष्या मत्स्याश्च सप्तमनरक पर्यन्तं गच्छन्तीति । सप्तमान्नरकान्निर्गतस्तिर्यगेव भवति, सम्यक्त्वं तु तस्य न निषिध्यते । षष्ठान्नरकान्निर्गतो यदि - मनुष्यत्वं प्राप्नोति, तदा विरतित्वं प्राप्नोति । पञ्चमान्नरकान्निर्गतस्तु यदि मनुष्यत्वं प्राप्नोति तदा सर्वविरतित्वं लभते । चतुर्थान्नरकान्निर्गतः कश्चित् - मनुष्यत्वं प्राप्य निर्वाणमपि प्रति । उपमान या उपमा का अर्थ हैं सादृश्य । सागर अर्थात् समुद्र से उपमा होना सागरोपम है । एक सागर जिस आयु का उपमान हो वह एक सागरोपम कहलाती है । त्रिसागरोपम आदि में भी इसी प्रकार का विग्रह कर लेना चाहिए । उन नरकों में मद्यपान करने वाले, मांस भक्षण करने वाले, असत्यवादी, परस्त्रीलम्पट, महान् लोभ से ग्रस्त, अपनी स्त्री, बालक, वृद्ध और महर्षियों के साथ विश्वासघात करने वाले, जिनधर्म के निन्दक, रौद्रध्यान करने वाले, तथा इसी प्रकार के अन्य पापकर्म करने वाले जीव उत्पन्न होते हैं । जब कोई जीव नरक में उत्पन्न होता है तो उस के पैर ऊपर और मुख नीचे की ओर होता है और नीचे गिरते हैं । उसके पश्चात् वे दीर्घ काल तक दुःखो का अनुभव करते हैं 1 यहाँ इतना समझ लेना चाहिए कि असंज्ञी जीव पहले नरक में सरीसृप दूसरे नरक तक ही जाते हैं, पक्षी तीसरे नरक तक ही जाते हैं, ही उत्पन्न होते हैं, भुजग पाँचवें नरक तक ही जा सकते हैं, स्त्रियां छठे हैं और मनुष्य - पुरुष एवं मत्स्य सातवें नरक तक उत्पन्न होते हैं । सातवें नरक से निकला जीव निर्यचगति में ही उत्पन्न होता है वहाँ सम्यक्त्व का निषेध नहीं है अर्थात् वहाँ कोई जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है । छठे नरक से निकला जीव यदि मनुष्यगति में उत्पन्न हो तो वह देशविरति अंगीकार कर सकता है पांचवें नरक से निकला प्राणी यदि मनुष्यत्व प्राप्त करता है तो सर्वविरति भी प्राप्त कर सकता है चौथे नरक से निकला कोई जीव मनुष्य गति पाकर निर्वाण भी प्राप्त कर सकता है । तीसरे, શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ ही उत्पन्न होते हैं, सिंह चौथे नरक तक नरक तक ही जाती
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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