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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ जीवस्य षड्भावनिरूपणम् ४१ परस्परप्रदेशानां प्रदेशबन्धात् कर्मणा अयोगोलकवद् एकीभूतस्यात्मनोऽन्यत्वप्रतिपत्तिहेतुर्भवति तत्र अवयवरूपः प्रदेशो जीवावयवानां परस्परं संयोगः कदाचिद् दृढ़ो भवति, कदाचिच्च शिथिलो भवति, तत्र फलप्रदानोन्मुखस्यौदीर्णस्य कर्मणोऽवयवाः जीवात्मावयवसंयोग शिथिलीकृत्यान्तःप्रविशन्ति जीवकर्मणोरवयवानां मिथो मिश्रणरूपप्रदेशवन्धेन जीवः कर्मणा सहैकीभूतो भवति, अयःपिण्डवद् भेदेन पार्थक्येन ज्ञातुं न शक्यते यथा दुग्धं पयोमिश्रितं सत् जलेन एकीभूतं पार्थक्येन ज्ञातुं न शक्यं भवति तद्वदिति भावः, उपयोगेन तु अयं जीवः स्वस्मिन् मिश्रितेभ्यः कर्मदलिकेभ्यः सकाशात् पार्थक्येन ज्ञातुं शक्यो भवति, कर्मपुद्गलानामुपयोगावस्थायां चैतन्यरूपेण परिणत्यभावात् ततश्च सकलजीवसाधारणं चैतन्यमुपशमक्षयक्षयोपशमवशात् औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकभावेन कर्मोदयवशात् कलुषा कारणे च परिणतजीवपर्यायविवक्षायां जीवस्वरूपं सम्पद्यते, द्रव्यादितन्निमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदय उच्यते यथा पयसि पङ्कस्योद्भूतत्वम् तत्र भवनं भावः-भावे घञ् जीवस्य भवनलक्षणपरिणतिविशेषो भावः उच्यते कर्मोदये सति जायमानो भावः-औदयिको व्यपदिश्यते, एवमेवात्मनि कर्मणः स्वशक्तेः साथ आत्मा का अयोगोलक ( लोहे के गोले ) के समान परस्पर प्रदेशबन्ध होने पर भी भिन्नता का ज्ञान कराता है । तात्पर्य यह है कि आत्मा यद्यपि कर्मों से बद्ध है-एकमेक हो रहा है, तथापि अपने चैतन्य स्वभाव के कारण उनसे भिन्न पहचाना जाता है । अवयव रूप प्रदेश, जीवावयवों का परस्पर संयोग कभी-कभी दृढ़ होता है और कभी-कभी शिथिल होता है । अपना फल प्रदान करने के लिए उन्मुख, उदय में आये कर्म के अवयव जीवात्मा के अवयवसंयोग को शिथिल करके अन्दर प्रवेश कर जाते हैं । जीव और कर्मके परस्पर मिश्रण रूप प्रदेश बन्ध के कारण जीव कर्म के साथ एक रूप हो जाता है । वह लोहे के पिण्ड के समान भिन्न नहीं मालूम होता। ___ अभिप्राय यह है कि जैसे दूध और पानी परस्पर में मिल जाने पर अलग-अलग प्रतीत नहीं होते उसी प्रकार आत्मा और कर्म एकमेक हो जाते हैं तो दोनों पृथक्-पृथक् प्रतीत नहीं होते; फिर भी उपयोग रूप लक्षण के कारण जीव अपने साथ मिले हुए कर्मदलिकों से पृथक् पहचाना जा सकता है । उपयोग की अवस्था में कर्म पुद्गलों की चैतन्य रूप से परिणति नहीं होती । अतः जीव मात्र में समान रूप से पाया जाने वाला चैतन्य, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक भाव से तथा कर्मोदय के वश से कलुषित आकार से परिणत जीवपर्याय की विवक्षा में जीव के स्वरूप होते हैं । भवत् अर्थात् होने को 'भाव' कहते हैं । यहाँ भाव में 'ध' प्रत्यय हुआ है । इस प्रकार जीव भवन रूप परिणाम को भाव कहते हैं । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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