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________________ Mr. तत्त्वार्थसूत्रे इत्येवं रीत्याऽप्रीतिजनकं निरन्तरं नितान्ततीव्र दुःखमनुभवतां निधनमपि वाञ्छतां तेषां नाग्काणां कर्म निर्धारितायुषामकाले विपन्नतापि (मृत्युरपि) न भवति-नापि तेषां तत्र शरणं किमपि,-नाऽप्यपक्रमणं तेषां ततो नरकाद् संभवति । तस्मात्-कर्मवशादेव दग्ध-विदारितच्छिन्नभिन्नक्षतान्यपि तेषां-शरीराणि सद्यएव संरोहन्ति, अम्भसि-दण्डराजिवत् । तथाचोक्तरीत्या नरकेषु नारकाणां त्रिविधानि दुःखानि भवन्तीतिभावः ॥सू० १५|| मूलसूत्रम् --"ते नरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठाणा, णिच्चं धयाराइया-" ॥१६॥ छाया--- "ते नरकाः--अन्तो वृत्ताः बहिश्चतुरस्राः, अघः-क्षुरप्रसंस्थानाः नित्यान्धकारादिकाः"-॥१६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रेषु नारकाणां नरकेषु परस्परोदीरितानि, क्षेत्रस्वभावोत्पनानि, परमाधार्मिकसंक्लिष्टा-ऽसुरोदितानि च दुःखानि त्रिविधानि भवन्तीति प्ररूपितम्, सम्प्रति-नरकाऽऽकारान् प्ररूपयितुमाह-"ते नरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे-खुरप्पसंठाणा, णिच्चंधयाराइया-” इति । ते खलु पूर्वोक्ताः-रत्नप्रभाऽऽदिसप्तपृथिवीषु वर्तमानाः नरकाः-नरकावासाः अन्तो वृत्ताः-अभ्यन्तरभागे वृत्ताः गोलाकाराः, बहिश्चतुरस्रा:-बाह्यप्रदेशे चतुरस्राः समचतुष्कोणाः, अधः-अधोभागे क्षुरप्रसंस्थानाः क्षुरं-छेदनास्त्रविशेष प्रतिपूरयतीतिक्षुरप्रः, तदाख्यास्त्रविशेषः । तस्येव संस्थानम् -आकारो येषां ते क्षुरप्रसंस्थानाः, की कामना करते हुए भी कर्म के द्वारा निर्धारित आयु वाले उन नारक जीवों का अकाल में मरण नहीं होता ! उनके लिए वहाँ कोई शरण भी नहीं है न वे नरकसे निकल कर अन्यत्र कहीं जा सकते हैं। कर्म के उदय से जलाये हुए, विदारण किए हुए छिन्न-भिन्न किये हुए और क्षत-विक्षत किये हुए शरीर भी पुनः शीघ्र ही जल में दण्डराजि के समान परिपूर्ण हो जाते हैं। आशय यह है कि नारक जीव नरकों में तीन प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं ॥१५॥ सूत्रार्थ-'ते नरगा अंतो वट्टा' इत्यादि । वे नरकावास अन्दर गोलाकार, बाहर चौकोर, खुरपा के समान आकार वाले तथा सदैव अन्धकार के युक्त आदि होते हैं ।। १६ ॥ तत्त्वार्थदीपिका–पूर्वसूत्रों में निरूपण किया गया है कि नरकों में नारक जीवों को आपस में पैदा किये हुए, क्षेत्र के स्वभाव से उत्पन्न होने वाले और परमाधार्मिक नामक संक्लिष्ट असुरों द्वारा उदीरित, यों तीन प्रकार के दुःख होते हैं । अब नरकावास के आकार आदि बतलाने के लिए कहते हैं वे नरकावास अन्दर गोल, बाहर चौकोर और नीचे खुरपा के समान आकार वाले होते हैं । क्षुर नामक एक अस्त्र है जो छेदन करने के काम आता है । उसे जो प्रतिपूर्ण करे શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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