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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू.१० अन्तरायकर्मणो बन्धहेतुनिरूपणम् ५८३ पभोगवीर्याणां विघ्नकरणमन्तरायं कर्म येन--येन कर्मणा दातादेयमपि वस्तु न ददाति तं तमुपायं दातुरापादयति तत्कर्म दानान्तरायकम् १ एवं-येन-येनोपायेन कर्मणाऽऽदेयं वस्तु प्रतिग्रहीता न लभते तल्लाभान्तरायम् २ एवं--येन येन कर्मणाऽज्ञानादिवस्त्रादिभोगोपभोगानुभवनसमर्थोऽपि भोक्तु मुपभोक्तञ्च न पारयति तद्भोगोपभोगान्तरायम् ।३।४। एवं येन येन कर्मणा वीर्यमुत्साहः-पराक्रमो न भवति तत्तकर्म वीर्यान्तरायम्-यथायथाऽनुष्ठानेन दानादिषु विघ्नमुत्पद्यते तथा तथा ऽनुष्ठानेना-ऽन्तरायस्य कर्मणो बन्धो भवतीति भावः तथाच--दानलाभभोगोपभोगवीर्याणां विघ्नकरणमन्तरायकर्मबन्धहेतुर्भवतीति फलितम्--1 उक्तञ्च-व्याख्याप्रज्ञप्तौ श्रीभगवतीसूत्रे ८ शतके ९ उद्देशके–'दाणंतराएणं. लाभंतराएणं, भोगतराएणं, उवभोगतराएणं वीरियंतराएणं अंतराइयकम्मा सरीप्पओगबंधे-" इति । दानान्तरायेण-लाभान्तरायेण-भोगान्तरायेणो-पभोगान्तरायेण वीर्यान्तरायेणा-ऽन्तरायकर्म शरीरप्रयोगबन्धः इति । एवञ्चा-ऽन्तरायशब्दस्य विघ्नकरणाऽर्थतया दानान्तराय, लाभान्तराय-भोगान्तरायोपभोगान्तराय–वीर्यान्तरायाः पञ्चा-ऽन्तरायकर्मबन्धहेतवो भवन्तीति बोध्यम् ॥सू० १०॥ मूलम् --रयण-सक्कर-वालुय-पंक-धूम-तम-तमतमप्पभा-सत्त नरगभूमीओ घणोदहि-घणवाय-तणुवाया-गासपइडिया अहो-अहो पिहुला ॥सूत्र-११॥ छाया रत्न-शर्करा-वालुका-पङ्क-धूम-तम-स्तमस्तमःप्रभाः सप्तनरकभूमयोघनोदधि धनबात-तनुवाता-ऽऽकाशप्रतिष्ठिता अधोऽधः पृथुला ॥सूत्र ११॥ फलितार्थ यह है कि दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न उपस्थित करने से अनुक्रम से दानान्तराय आदि का बन्ध होता है । व्यख्याप्रज्ञप्ति श्री भगवतीसूत्र में शतक ८, उद्देशक ९ में कहा है-दान में अन्तराय करने से, लाभ में अन्तराय करने से भोग में अन्तराय करने से उपभोग में अन्तराय करने से और वीर्य में अन्तराय करने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है अन्तराय शब्द का अर्थ हैं-विघ्न डालना । इस प्रकार दानान्तराय लाभन्तराय भोगान्तराय उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ये पांच अन्तराय कर्म के बंध के कारण हैं ॥१०॥ सूत्रार्थ -- 'रयण-सक्कर०' इत्यादि ॥सू० ११॥ सात नरक भूमियां हैं जैसे-१ रत्नप्रभा, २ शर्कराप्रभा, ३ वालुकाप्रभा, ४ पङ्कप्रभा, ५ धूमप्रभा, ६ तमःप्रभा, ७ तमस्तभः प्रभा । ये सातों भूमियां घनोदधि, धनवात, तनुवात और आकाश, इनपर टिकी हुई हैं नीचे नीचे उत्तरोत्तर चौड़ी होती जाती हैं अर्थात् तमस्तमः प्रभा सातवीं पृथिवी उपर की छहो पृथिवियों से चौडी हैं ॥सू० ११॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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