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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ.५सू.६ चारित्रमोहनीयस्य षोडशकषायनवनोकषायकर्मणोबन्धहेतवः५७३ दुःखादिसस्यफलयोग्या नियते कर्मभूमि यस्ते कषायाः क्रोधमान-माया लोभादय स्तेषामुदयो विपाकः कषायोदयः तस्मात् तज्जन्यो यः क्रोधादेः कषायस्य तीब्रः प्रकृष्टः आत्मनः परिणामोऽवस्थाविशेषः शब्दरूपगन्धस्पर्शादिविषयेषु गाय॑म् ईर्ष्यालुताऽसत्यवादिता वक्रता परस्त्रीरतिप्रियतांदिः तेन चारित्रमोहनीयरूपस्य षोडशकषायवेदनीयनवनोकषायवेदनीयपापकर्मणो बन्धो भवति । तत्र षोडशकषायाः यथा __ अनन्ताऽनुबन्धिक्रोधमानमायालोभाः ४ अप्रत्याख्यानि क्रोधमानमायालोभाः-४ प्रत्याख्यानि क्रोधमानमायालोभाः ४ सवन क्रोधमानमायालोभाः ४ इति । तेषा मुदयो तीव्रपरिणाम श्चारित्रमोहनीयस्य बन्धहेतवो भवन्तीति । ___तथा नवनोकाषायाः हास्य १ रत्य-२ रति-३ भय-४ जुगुप्सा-५ शोक-६ स्त्रीवेद ७ पुरुषवेद-८ नपुंसकवेदरूपाः-९ तत्र हास्य मोहनीयकर्मोदयतो विवृतमुखेन विधीयमानो-प्रासन दीनाभिलाषित्व कन्दर्पोपहासनाऽतिप्रलापहासशीलतादयो हास्यवेदनीयकर्मबन्धहेतवो भवन्ति १ मोहनीयोदयाद्विषयेषु चित्ताभिरुचि विचित्र परिक्रीडनान्यचित्ताकर्षणाऽनेकविधरमणपीडाऽभावदेशाद्यौत्सुक्य प्रीति कषति-जो विषय रूपी खड्ग से प्राणियों का घात करे वह कष अर्थात् संसार । उसका जिससे आय-लाभ हो सो कषाय । अथवा कष्यते अर्थात् संसार रूपी अटवी में गमन- आगमन रूप कांटों में प्राणी जिनके द्वारा घसीटे जाते हैं, उन्हें कषाय कहते हैं । अथवा कृष्यते अर्थात् जिनके द्वारा कर्म भूमि सुख-दुःख आदि धान्य-फल के योग्य बनाई जाती, है, वे कषाय हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ, ये चार कषायोदय से उत्पन्न होने वाला आत्मा का जो तीव्र परिणाम अर्थात् अध्यवसाय है, जैसे रूप रस गन्ध और स्पर्श आदि विषयों में लोलुपता, ईर्षालुता असत्यवादिता, वक्रता, परस्त्री प्रति अनुराग आदि, ऐसे परिणामन विशेष से सोलह कषाय वेदनीय और नौ नो कषायवेदनोय रूप चारित्रमोहनीय कर्म का बंध होता है । इनमें से सोलह कषाय ये हैं - अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभ (४), अप्रत्याख्यानी क्रोध मान माया लोभ (४), प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ (४), संज्वलन क्रोध मान माया लोभ । इन कषायों का उदय रूप तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय के बंध का कारण होता है। नौ नोकषाय ये हैं- (१) हास्य (२) रति (३) अरति (४) भय (५) जुगुप्सा (६) शोक (७) स्त्री वेद (८) पुरुष वेद और (९) नपुंसक वेद । (१) हास्यमोहनीय कर्म के उदय से मुहँ फाड़ कर हँसना, दीनाभिलाषित्व, कन्दर्प, उपहासना, अतिप्रलाप, हास शोलता, आदि हास्य वेदनीय कर्म के बन्ध के कारण होते हैं। (२) मोहनीय कर्म के उदय से विषयों के प्रति चित्त की अभिरुचि होना, विविध प्रकार શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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