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________________ तत्त्वार्यसूत्रे लौकिके व्यवहारे पादादिना स्पृष्टोऽनेनाऽपमानितोऽहमिति तस्मै क्रुध्यति । शिरःप्रभृतिशरीरावयवजनकंतु-शुभनाम पुण्यकर्म भवति, अतः शिरसा स्पृष्टचरणाः पूजा-सदभावं मन्यन्ते प्रीयन्ते च । एवमेव-दुर्भगनामापि पाप कर्म भवति, तस्य-दौर्भाग्यनिर्वर्त्तकत्वात्-मनसोऽप्रियताजनकत्वाच्च । एवम् -दुःस्वरनामापि पापकर्मवर्तते, तस्य-कर्णकटुताकारणनिर्वर्तकत्वात् श्रुतोदुःस्वरोगर्दभस्येव श्रोतृणां मनो दुःखाकरोति । एवम्-अनादेयनामापि पापकर्म भवति, तस्या-ऽनुपादेयताजनकत्वात् यदुदयाद् युक्तियुक्तमपि तदीयं वचो लोकानप्रमाणयन्ति-नबा-ऽऽगतवति तस्मिन् अर्हणार्हस्याऽपि तस्या-ऽभ्युत्थानादि कुर्वन्ति तदनादेयनामकर्मोच्यते । "एबमेवा-ऽयशःकीर्तिनामापि-पापकर्म-उच्यते, तस्य दोषप्रवादप्रख्यायकत्वात् । एवम् नीचै गोत्रमपि पापकर्म प्रोच्यते, तस्य चण्डाल-मुष्टिक-व्याधमत्स्यबन्ध-दास्यादि निवर्तकत्वात् । तथाचोक्तं व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवती सूत्रे ८-शतके ९-उद्देशके-"जातिमएणं-कुलमएम -बलमएणं, जाव-इस्सरियमएणं णीयागोयकम्मा सरीर जाव पयोगबंधे-" इति । जाति मदेन-बल यावत्-ऐश्वर्यमदेन नीचे गोत्र कर्म शरीर यावत् प्रयोगबन्धः इति, यावत्-पदेन रूपमदेन–तपोमदेन श्रुतमदेन–लाभमदेन, इतिसंग्राह्यम् । अशुभ नामकर्म भी पापप्रकृति है; क्योंकि इसके उदय से शरीर के चरण आदि अवयव अशोभन होते हैं । जिस कर्म के उदय से शरीर के सिर आदि अवयव शोभन बने, वह शुभकर्म पुण्य में परिगणित है । इसी प्रकार दुर्भाग्य का जनक दुर्भग नामकर्म भी पापकर्म है । वह मन की अप्रियता का जनक है। दुःस्वर नामकर्म भी पापकर्म है, क्योंकि उसके उदय से जीव का स्वर कर्णकट होता है, जैसे गधे का स्वर सुनने वालों को अप्रिय प्रतीत होता है। अनादेय नामकर्म भी पापप्रकृति रूप है । इसके उदय से मनुष्य के वचन ग्राह्यमान्य नहीं होते । युक्ति युक्त बात कहने पर भी लोग उसकी बात नहीं मानते और न उसके आने पर सन्मान-सत्कार करते हैं। अयशःकीर्ति नामकर्म भी पापकर्म कहलाता है, क्योंकि इसके उदय से सत्कृत्य करने पर भी जगत् में अपयश और अपकीर्ति फैलती है। नीचगोत्र कर्म भी पापरूप है, क्योंकि इसके उदय से चाण्डाल, व्याध, मच्छीमार, दासी आदि के रूप में जन्म लेना पड़ता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती सूत्र के आठवे शतक के नौवे उद्देशक में कहा है-'जाति का मद करने से कुल का मद करने से बल का मद करने से रूप मद, लाभ मद, तप मद, सूत्र मद ऐश्वर्यमद करने से नीच गोत्र का बन्ध होता है। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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