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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४सू. २८ भवनपत्यादिदेवानामायुःप्रभावादेयूँनाधिकत्वम् ५५७
एवं यावत् स्तनितकुमाराणाम् । एवम्-औधिकामां पानव्यन्तराणाम् । एवं ज्योतिष्काणामपि । सौधर्मेशानदेवानां खलु-एकज्वैवोत्तरवैक्रिया, यावदच्युतः कल्पः । नवरं सनत्कुमारे भवधारणीया जधन्येना-ऽङगुलस्यासंख्येयभागः ।
उत्कृष्टेन षड्रत्नयः । एवं माहेन्द्रेऽपि, ब्रह्मलोके लान्तकेषु पञ्च रत्नयः । महाशुक्रसहस्रारयोश्च चतस्रो रत्नयः । आनत-प्राणता-ऽऽरणा-ऽच्युतेषु तिम्रो रत्नयः । प्रैवेयककल्पातीतवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियाणां वैक्रियशरीरावगाहना किं महालया प्रज्ञप्ता ! गौतम ! अवेयक देवानाम् एका भवधारणीया शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता, सा जन्धयेनाऽङ्गुलस्याऽसंख्येयभागः उत्कृष्टेन द्वे रत्निः ॥
__ असरकुमाराणं भंते ! ओहिणा केवइ खेत जाणइ पासइ ? गोयमा ! जहण्णेणं पणवीसं जोयणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जे दीवसमुहे ओहिणा जाणंति पासंति । नागकुमाराणं जहण्णेणं पणवीसं जोयणाई उक्कोसेणं संखेज्जे दीवसमुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति एवं जाव थणियकुमारा ०००० वाणमंतरा जहा नागकुमारा । जोइसियाणं भंते अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट एक लाख योजन की होती है ।
इसी प्रकार स्तनितकुमारों तक समझ लेना चाहिए । सामान्य रूप से वानव्यन्तरों की, ज्योतिष्कों की तथा सौधर्म और ईशान देवों की अवगाहना भी पूर्वोक्त ही है । अच्युत कल्प तक के देवों के उत्तरवै क्रिय शरीर की अवगाहना इसी प्रकार अर्थात् एक लाख योजन की है । सनत्कुमार कल्प के देवों के भवधारणीय शरीर की अवगाहना जघन्यअंगुल के असंख्यतवें भाग की
और उत्कृष्ट छह हाथ की है' माहेन्द्र कल्प में भी इतनी ही अवगाहना है । ब्रह्मलोक और लान्तक कल्पों में पाँच हाथ की, महाशुक्र और सहस्रार कल्प में चार हाथ की एवं आनत प्राणत आरण और अच्युत कल्प में तीन हाथ की अवगाहना होती है ।
प्रश्न-अवेयक कल्पातीत वैमानिक पंचेन्द्रिय देवों के वैक्रिय शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी है ?
उत्तर-गौतम ! अवेयक देवों में एक भवधारणीय शरीर की ही अवगाहना होती है (उत्तर वैक्रिय शरीर की अवगाहना नहीं होती , क्यों कि वे देव उत्तर वैक्रिय शरीर बनाते नहीं हैं-उनमें वैसी उत्सुकता--उत्कंठा नहीं होती ) । भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट दो हाथ की होती है । अनुत्तरविमानों के देवों के विषय में भी ऐसा ही समझ लेना चाहिए, अर्थात् उनमें भी भवधारणीय शरीर की ही अवगाहना होती है । और वह एक हाथ की होती है । उत्तर वैक्रिय शरीर वे भी नहीं बनाते हैं।"
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧