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तत्त्वार्थसूत्रे
जघन्यायास्तारायास्तु-पञ्चधनुःशतानि विमानमण्ङलविष्कम्भो बोध्यः । किन्तु-मनुष्यलोकाद्वहिर्भागे मानुषोत्तरपर्वतबहिर्देशे ये सूर्यादयो ज्योतिष्काः सन्ति, ते यथावस्थिता भवन्ति, न तु-परिभ्रमन्ति।
तेषां विमानप्रदेशा अप्यवस्थिता एव भवन्ति, न तु---मनुष्यलोकान्तर्वर्तिनामुपरागाभिरिवाऽन्यत्वं-मालिन्यं वा प्राप्नुवन्ति । तत्रोपरागादीनामसद्भावात् , तेषां सूर्यचन्द्रादीनां सुखशीतोष्ण रश्मयस्तत्र भवन्ति, चन्द्रसूर्यास्तत्र नात्यन्तशीताः--नात्यन्तोष्णाश्च क्रमशो भवन्ति ।
सर्वचन्द्राश्च तत्राभिजिता युक्ता भवन्ति, सूर्याश्च--पुष्यैर्युक्ता स्तत्र भवन्ति । उक्तञ्च जीवाभिगमे ३--प्रतिपत्तौ २--उद्देशके
ते मेरुपरियडंता पयाहिणाबत्तमंडला सव्बे।
अणवद्वियजोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥१॥ " अंतो मणुस्सक्खेत्ते हवंति चारोवगाय उववण्णा ।
पंचविहा जोइसिया चंदसूरागहगणा य ॥२॥ " तेण परं जे सेसा चंदाइच्चगहतारणक्खत्ता।
नत्थि गई न वि चारो अवट्ठिया ते मुणयव्वा ॥३॥ "ते मेरु पर्यटन्तः- प्रदक्षिणावर्तमण्डलाः सव-। । अनवस्थितयोगे-श्चन्द्राः सूर्या ग्रहगणाश्च- ॥ १ "अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे-भवन्ति चारोपगाश्चोपपन्नाः-।
पञ्चविधा ज्योतिष्का-श्चन्द्राः सूर्याग्रहगणाश्च-॥२॥ से बड़े तारा के विमानमंडल का बिस्तार आधे कोस का है । सब से छोटे तारा के विमानमंडल का बिस्तार पाँचसौ धनुष है।
किन्तु मनुष्यक्षेत्र से बाहर अर्थात् मानुषोत्तर पर्वत के बहिर्देश में जो सूर्य आदि ज्योतिष्क हैं, वे अवस्थित होते हैं, भ्रमण नहीं करते हैं। उनके विमानप्रदेश भी अवस्थित हैं और उनका लेश्या-प्रकाश भी अवस्थित ही है । जैसे मनुष्यलोक में ग्रहण आदि होते हैं, वैसे वहाँ नहीं होते । वहाँ कभी उनमें मलिनता नहीं आती । वहाँ ग्रहण (ग्रास) का कोई कारण ही नहीं है । वहाँ सूर्य और चन्द्र की सुखद शीतोष्ण किरणें होती हैं । वहाँ चन्द्रमा न अति शीतल हैं और न सूर्ये अति उष्ण है।
___वहाँ सभी चन्द्रमा अभिजित् नक्षत्र के योग से युक्त होते हैं और सूर्य पुष्य नक्षत्र के योग से युक्त होते हैं । जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के दूसरे उद्देशक में कहा है
वे चन्द्र सूर्य ग्रह आदि सभी ज्योतिष्क मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए भ्रमण करते रहते हैं और कभी भी ठहरते नहीं हैं ॥१॥
चन्द्र, सूर्य और ग्रह आदि पाँचों प्रकार के ज्योतिष्क देव मनुष्यलोक के भीतर संचार शील होते हैं-निरन्तर गमन करते रहते हैं ॥२॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧