SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानर्युक्तिश्च अ. १ सजीवनीरूपणम् ३३ औपपातिकाः उपपतनम् उत्पातः देवनारकाणां प्रसिद्धगर्भसंमूर्च्छन रूपजन्मप्रकारद्वयविलक्षणउद्भवः तेन निर्वृत्ताः औपपातिकाः देवनारका, देवाश्च शय्यायाम् नारकाश्च कुम्भ्यादिषु स्वयं समुत्पद्यन्ते इतिभावः । तथाचोक्तम्- अंडया-पोयया - जराउया - रसया - संसेयया संमुच्छिमा - उब्भिज्जा-उववाइया य-" इति । दशवैकालिक ४ - अध्ययने ॥ " गन्भवक्कंतिया य-संमुच्छिमा य-" इति । प्रज्ञापनायाः १ - पदे - | "दोह उववार पण्णत्ते, देवाणं चेव नेरइया चैव, " इति स्थानाङ्गस्य २-स्थाने ३ – उद्देशे ८५ सूत्रे । ! [छाया ] अण्डजाः-पोतजाः- जरायुजाः- रसजाः - संस्वेदजाः - संमूर्च्छिमाः – उद्भिज्जाःऔपपातिकाश्चेति । गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च - संमूर्च्छिमाचेति । द्वयोरुपपातः प्रज्ञप्तो देवानाञ्चैव, नैरयिकाणाञ्चैवेति । तत्र—रसो घृतादिः तस्माद् चर्मादियोगे जाताः । “रसा - सृङ्-मांस - मेदोsस्थि मज्जा -शुक्राणि धातवः" इति वचनात् । रसः प्रथमो धातुः तस्मात् जाता रसजाः सूक्ष्माः । सस्वेदः- प्रस्वेदः तस्माज्जाताः संस्वेदजाः । कक्षाद्युत्पन्नाः सूक्ष्माः । समन्तात् पुद्गलानां मूर्च्छनं संघाती भवनं सम्मूर्च्छः तस्माज्जाताः सम्मूच्छिमाः - सर्प - ददुर - मनुष्यादयोऽपि सम्मूर्च्छनादुत्पद्यन्ते । तथाचोक्तम् - "शुक्र - सिंघाणक - श्लेष्म कर्ण - दन्तमलेषु च । अत्यन्ताऽशुचिदेहेषु सद्यः सम्मूर्च्छनो भवेत् -" ॥१॥ इति उदभेदनमुद्भेदः भूमि - काष्ठ-पाषाणादिकं भित्वा ऊर्ध्वं निस्सरणम् जो उपपात से जन्म लेते हैं, वे औपपातिक हैं । उपपात का अभिप्राय है देवों और नारकों का, गर्भ और संमूर्च्छन जन्म से भिन्न प्रकार का जन्म । देव शय्या में उत्पन्न होते हैं और नारक कुम्भी आदि में स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं । कहा भी है--'अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्छिम, उद्भिज्ज और औपपातिका — दशवैकालिक, चतुर्थ अध्ययन । गर्भज और संमूर्च्छिय -- प्रज्ञापन प्रथम पद । दो प्रकार के जीवों का औपपातिक जन्म होता है— देवों का और नारकों का ।' स्थानांग २ स्थान ३ उद्देशक ८५ वाँ सूत्र | अर्थात् मद्य आदि रस में जो उत्पन्न होने वाले हैं वे रसज कहलाते । मज्जा और शुक्र संस्वेद अर्थात् पसीने से उत्पन्न होनेवाले संस्वेदज जीव हैं । इधर-उधर से पुद्गलों के एकत्र हो जाने से उत्पन्न होनेवाले जीव वे सम्मूर्छिम हैं । सर्प मेढक और मनुष्य आदि भी सम्ममूर्च्छन जन्म से पैदा होते हैं । भूमि काष्ठ पाषाण आदि को भेद कर ऊपर आ जाना उभेद कहलाता है । उससे जो ५ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy