________________
५१६
तत्त्वार्थसूत्रे यैः सिद्धाः प्रख्याताः सवार्थसिद्धाः यद्वा-सर्वे अर्थाः सिद्धा भवन्ति यत्र ते सर्वार्थसिद्धाः । तत्रैकमनुष्यभवं कृत्वा तत्रत्यः सर्वे देवा मोक्ष प्राप्य सिद्धा भवन्तीति भावः । विजयादिषु च केचन देवा द्विमनुष्यभवमपि कृत्वा मोक्षं प्राप्नुवन्ति,
सर्वार्थसिद्धे च -नियमत एकभवमेव कृत्वा मोक्षं प्राप्नुवन्तीति विशेषः अत एव-सर्वार्थ सिद्धा उच्यन्ते , सर्वे चाऽभ्युदयार्थाः । एषां सिद्धा भवन्तीति सवार्थसिद्धा उच्यन्ते अथवाविजितप्रायाणि वा कर्माणि एभिरिति विजयादयः प्रतनुकर्मपटलाञ्छन्नत्वात् प्रत्यासन्नवर्त्यनवद्य सुखनिर्भरसिद्धिविभूतिसमागमत्वात्प्राप्तपरमकल्याणाः मुनिजन्मनि परीषहै द्वाविंशतिसंख्यकैः क्षुत्पिपासादिभिपराजिताः सन्तो मरणान्तरमपि अपराजिता एव देवाः समुत्पन्नाः भवन्ति ।
यद्वा-सतततृप्तत्वात्तत्र क्षुधादिभिर्न पराजीयन्ते इत्यपराजिता उच्यन्ते एवं संसारसम्बन्धिन्याः सर्वकर्तव्यतायाः परिसमाप्तत्वात् सर्वार्थसिद्धो व्यपदिश्यन्ते.। अथवा-सिद्धप्रायःसकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष रूप उत्तमार्थो येषान्ते सर्वार्थसिद्धाः । तेषां मोक्षस्याऽन्ते आगामिजन्मभावित्वात् , इत्येवं रीत्या यद्यपि विजयादयोऽपि सवार्थसिद्धत्वेन व्यपदेष्टुं शक्यन्ते. तथापि-गोशब्दादिवत् समस्त अतिशयशाली एवं अत्यन्त रमणीय शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से जो सिद्ध अर्थात् प्रख्यात हों, वे सर्वार्थसिद्ध समझने चाहिए ।
_____ अथवा जहाँ सर्व अर्थ सिद्ध हो जाता है; वे सर्वार्थसिद्ध । इसका तात्पर्य यह है कि वहाँ (सर्वार्थसिद्ध विमान) के देव एक मनुष्यभव करके मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और सिद्ध हो जाते हैं। विजय आदि चार विमानों के कोई-कोई देव दो मनुष्यभव करके भी सिद्ध होते हैं, जब कि सर्वार्थसिद्ध विमान के देव नियम से एक ही भव धारण करके सिद्धि प्राप्त कर लेते है । यह सर्वार्थसिद्ध विमान की चार विमानों से विशेषता है ।
विजय आदि देवों के नाम का दूसरे प्रकार से भी अर्थ किया जा सकता है । जिन्होंने कर्मों को लगभग विजित कर लिया है, बे विजय आदि देव कहे जा सकते हैं। उनके कर्म बहुत हल्के पड़ जाते हैं, इस कारण सिद्धि-मुक्ति की निरवद्य सुखमय विभूति उनके सन्निकट आ जाती है । अतएव वे परम कल्याण को प्राप्त कर चुके हैं । क्षुधा पिपासा आदि वाईस परीषहो से अपने पूर्व मुनि जीवन में पराजित न होकर, मरण के अनन्तर भी वे अपराजित देवों के रूप में उत्पन्न होते हैं।
अथवा सदैव तृप्त रहने के कारण वे देव क्षुधा आदि से पराजित नहीं होते, इस कारण उन्हें अपराजित कहा है । इसी प्रकार संसार संबन्धी समस्त कर्त्तव्यों को परिसमाप्त कर चुकने के कारण उन्हें सर्वार्थसिद्ध कहा जाता है । अथवा समस्त कर्मो का क्षय स्वरूप मोक्ष रूप उत्तम अर्थ जिनका प्रायः सिद्ध हो चुका है, बे सर्वार्थसिद्ध कहलाते हैं; क्योंकि अगले दूसरे ही भव में उन्हें मोक्ष प्राप्त होने वाला है ।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧