________________
दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. २०
कल्पोपपन्नकवैमानिकदेवनिरूपणम् ५०९ तम् सम्प्रति वैमानिकदेवानां विशेषतः प्ररूपणं कर्तु कल्पोपपन्नककल्पातीतभेदेन द्विविधेषु वैमानिकेषु प्रथमं प्रथमोपात्तकल्पोपपन्नकवैमानिकदेवान् प्ररूपयति "कप्पोववण्णगा वेमाणिया बारसविहा सोहम्म-ईसाण सणंकुमार माहिद बंभलोय लंतय महासुक्क सहस्सार आणय पाणय आरणाच्चुयभेया" इति ।
कल्पोपपन्नका-कल्पेषु द्वादशदेवलोकेषु उपपन्नकाः कल्पोपपन्नकाः वैमानिकाः विशेषतः स्वस्थितान् सुकृतशालिनो मानयन्ति सम्मानयन्ति धारयन्ति इति विमानानि, तेषु भवा, वैमानिकाः ते देवाः खलु द्वादशविधाः सन्ति, सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तक महाशुक्रसहस्राराऽऽनतप्राणताऽऽरणाऽच्युतभेदात् । तत्र-ते खलु कल्पा वक्ष्यमाणप्रकारेण व्यवस्थिताः सन्ति, तथाहि ज्योतिश्चक्रादुपरि असंख्यातकोटिकोटियोज़नान्यतिक्रम्यात्र मेरूपलक्षिता
र्धिदक्षिणोत्तरभागव्यवस्थितौ पूर्वपश्चिमायतौ दक्षिणोत्तरविष्कम्भौ अर्चिमालीव देदीप्यमानौ असंख्येय योजनायामविष्कम्भपरिक्षेपौ सर्वरत्नमयौ मध्यव्यवस्थितसर्वरत्नमयावशोकमप्तपर्णचम्पकसहकारसुशोभितशक्रेन्द्रैशानेन्द्रावासयुक्तौ सौधमैशानदेवलोकौ प्रत्येकमर्द्धचन्द्राकारौ युगलरूपेण दक्षिणोत्तरभागज्योतिष्क और वैमानिक हैं उनमें विशेषतः क्रम से भवनपति वानव्यन्तर ज्यौतिष्क देवों की प्ररूपणा करदी गई है अब बैमानिक देवों की विशेष रूप से प्ररूपणा करने के लिये कल्पो. पपन्न और कल्पातीत के भेदों को लेकर दो प्रकार के बैमानिकों में प्रथम ग्रहण किये हुए कल्पोपपन्न बैमानिक देवों का प्ररूपणकरते हैं
"कप्पोबवन्नगा वेमाणिया बारसबिहा०' इत्यादि । कल्पोपपन्नक देव सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहन्द्र; ब्रह्म लोक-लान्तक–महाशुक्र-सहस्रार आनत--प्राणत आरण अच्युत के भेद से बारह प्रकार के होते हैं । कल्पों में अर्थात् बारह प्रकार के देवलोको में जो उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कहे जाते हैं, वैमानिक का अर्थ है विमानो में रहने वाले देव, विशेष रूप से अपने में रहे हुए पूर्वोपार्जित पुण्य शाली प्राणियों को मानते हैं, अर्थात् सम्मान करते है धारण करते हैं उनको विमान कहते हैं,
और विमानों में होने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं । वे वैमानिक देव सौधर्म आदि बारह कल्पों में होने से देव भी बारह प्रकार के कहे जाते हैं। बारह कल्प आगे कहे जाने बाले प्रकार से व्यवस्थित हैं
ज्योतिश्चक्र के ऊपर असंख्यात करोड़ा करोड़ योजनों के उल्लंघने पर यहाँ मेरु पर्वत को आश्रय करके दक्षिणार्द्ध तथा उत्तरार्ध भाग में व्यवस्थित पूर्वपश्चिम से लम्बे और दक्षिण उत्तर से चौडे अचिमाली सूर्य की तरह देदीप्यमान असंख्यात योजन आयाम विष्कंभपरिक्षेप वाले सर्व रत्नमय मध्यस्थित सर्वरत्न मय अशोक सप्तपर्ण चम्पक सहकार सुशोभित शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के आवास से युक्त दो पहला और दूसरा सौधर्म और ईशान देवलोक एक एक अर्धचन्द्रा कार युगल रूप दक्षिणोत्तर भाग को लेकर समश्रेणि में व्यवस्थित हैं १-२। उनके ऊपर असंख्यात
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧