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________________ तत्त्वार्थसूत्रे भवति । ततश्च संवेगवैराग्ये भवतः । किच्चा - ऽन्यः खलु कायस्वभावो दुःखहेतुत्वं भवति । तत्र--पीडारूपबाधालक्षणं दुःखम्, सा च बाधा शरीरस्वान्ताश्रया भवति, ततश्च यावत्कालपर्यन्तं शरीरं तिष्ठति तावदपि शरीराश्रयो दुःखोपभोगो न व्यवच्छिन्नो भवति कर्मपुग्दलात्मप्रदेशानां परस्परानुगतौ नीरक्षीरवदविभागे सति आत्मनः कर्म पुग्द लहे तुको दुःखानुभवो भवति, ततश्च कायस्य दुःखहेतुतां भावयन् भव्य आत्माऽस्य शरीरस्या - ssत्यन्तिकोच्छेदाय प्रयतते । एवं निःसारत्वमपि कायस्वभावो वर्तते, तथाहि त्वङ् मांस-मज्जादिपटलभेदेन परिवेष्ट्यमानेऽपि अस्मिन् शरोरे कदलीगर्भ इव मेदोऽस्थिपञ्जराऽऽन्त्रजजलमलमूत्रकफपित्तमज्जादिसमुदाये न कोपि सारभागः समुपलभ्यते, ४८८ अपितु—-निःसार उपलभ्यते खलु अकालभङ्गुरोऽयं काय इत्येवं भावयतः शरीरे मूर्च्छालक्षणेऽभिष्वङ्गो न भवतीति । एवम् - अशुचित्वमपि कायस्वभावो वर्तते, तत्रा - शुचित्वञ्च - लोकप्रसिद्धं शरीरे एवं बाहुल्येन दरीदृश्यते । तथाहि - गर्भव्युत्क्रान्तिकमानुषशरीरस्य खलु मूलं कारणं शुक्रशोणिते भवतः, तदनन्तरञ्च तयोरेव शुक्ररजसो कलल - बुदबुद्मांसपेशीप्रभृतिपरिणामः किञ्चि न्मासानन्तरं शिरः पाणिपादाद्यवयवाऽभिव्यक्तिमातृभक्षिताहारनिः स्यन्दप्रवाहपूरितरसहरणी कुल्या इस प्रकार चिन्तन करने से शरीर के प्रति जो ममत्व होता है, वह दूर हो जाता है । इससे संवेग और वैराग्य की उत्पत्ति होती है । इसके अतिरिक्त यह शरीर दुःखों का कारण है । पीडारूप बाधा को दुःख कहते हैं । वह बाधा दो प्रकार की होती है-शरीर के आश्रय से और मन के आश्रय से । यह शरीर जब तक विद्यमान रहता है तब तक दुःख से छुटकारा नहीं मिल सकता । कर्म के पुद्गल और आत्मा के प्रदेश जब मिलते हैं और दूध - पानी की तरह एक मेक होकर रहते हैं तो कर्म - पुद्गलों के निमित्त से दुःख का अनुभव होता है । इस प्रकार यह शरीर दुःख का कारण है, ऐसी भावना करता हुआ भव्य जीव शरीर के अत्यन्त विनाश के लिए प्रयत्न करता है अर्थात् ऐसी साधना करता है जिससे शरीर के साथ का संबंध सदा के लिए नष्ट हो जाय ! यह शरीर निस्सार भी है। त्वचा ( चमड़ी) मांस, मज्जा आदि से वेष्टित इस शरीर में, जो कि मेद, अस्थिपंजर, आंतों, जल, मल, मूत्र, कफ, पित्त, मज्जा आदि का समुदाय है, कदली स्तंभ के समान निःसार है, इसमें कुछ भी सार नहीं है ! अपितु अकाल में ही नष्ट हो जाने वाला यह शरीर निस्सार ही प्रतीत होता है। ऐसी भावना करने वाले के चित्त में शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रहती । यह शरीर अशुचि अर्थात् अपवित्र भी है। लोक में जो अशुचि के रूप से प्रसिद्ध है, शरीर के अन्दर ही उसकी बहुलता देखी जाती है गर्भज मनुष्य के शरीर का मूल कारण शुक्र और शोणित है । तत्पश्चात् उन्हीं शुक्र और शोणित का कलकल, बुद् बुद, मांसपेसी आदि के શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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