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________________ ४५४ तत्वार्थ सूत्रे यद्दीयते तत् करुणादानम् । सुपात्रदानं महाव्रतधारिभ्यः प्रतिमाधारिश्रावकेभ्यश्च यद्दानं तत् । इदमुपलक्षणम्, तेन चतुर्विधसंघसुखोत्पादनमित्यर्थः || १५ || वैयावृत्त्यं - आचार्यादीनां शुश्रूषा, १६ समाधिः -- सर्वजीवानां सुखोत्पादनम्, तथासंघस्य श्रमणानां च समाधिः वैयावृत्त्यकरणमपि तीर्थकर नामकर्म बन्धहेतुर्भवति तत्र संवस्तावत्सम्यक्त्व - ज्ञानचारित्राणां समूहस्तदाधारत्वात् श्रमणश्रमणी - श्रावक श्राविकारूपोऽपि संघस्तस्य समाधिः–समाधानं निरुपद्रवत्वमिति ॥ १७ ॥ अपूर्वज्ञानग्रहणं - प्रसिद्धम् १८ श्रुतभक्ति:जिनोक्तागमेषु परमानुरागः, स्वगुणदोषावर्जितसकलसुरासुरमनुजेश्वरेषु महामहिमशालिषुअचिन्त्यसामर्थ्ययुक्तेषु सन्मार्गोपदेशात् परोपकारपरायणेषु परमयोग्याचार्येषु प्रकृष्टमनः परिणामशुद्धिपूर्विका भक्तिः, सद्भावातिशयोत्कीर्तनवन्दनपर्युपासनादि रूपा तीर्थकरत्वनामकर्मण हेतुभर्वतीतिभावः ॥१९॥ एवम् - प्रवचनप्रभावना - प्रभूतभव्येभ्यः प्रव्रज्यादानम्, भव कूपप तत्प्राणित्राण समाश्वासनपरायणजिनशासनमहिमोपबृंहणं समस्तस्य जगतो जिनशासनरसिककरणं मिथ्यात्वतिमिरापहरणं रहा हो या कोई मर रहा हो तो उसकी रक्षा करना अभयदान है । अभयदान यहाँ करुणादान का उपलक्षण है । महाव्रतधारी मुनियों को तथा प्रतिमाघारी श्रावकों को दान देना सुपात्रदान कहलाता है । यह कथन उपलक्षण मात्र है, अतएव चतुर्विध संघ को साता उपजाना ही सुपात्रदान समझना चाहिए । (१६) वैयावृत्य -- आचार्य, उपाध्याय आदि की निर्मल भाव से सेवाशुश्रूषा करना वैयावृत्य है । (१७) समाधि -- सब जीवों को सुख उपजाना । तथा-संघ और श्रमणों की समाधि एवं वैयावृत्य करने से भी तीर्थंकरनाम कर्म बंधता है । संघ का मतलब है सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र का समूह । श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका में ये सम्यग्दर्शन आदि पाये जाते हैं, अतः इनका समूह भी संघ कहलाता है । इनको साता पहुँचाना अर्थात् किसी प्रकार का उपद्रव न होने देना, शान्ति प्रदान करना संघसमाधि है । (१८) अपूर्वज्ञानग्रहण – नित्य नया-नया ज्ञान प्राप्त करना । १९) श्रुतभक्ति - जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कथित आगमों में परम अनुराग होना । सुरेन्द्रों असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों आदि को आकर्षित करने वाले, महामहिमाशाली और अचिन्तनीय सामर्थ्य से सम्पन्न, सन्मार्ग का उपदेश करने के कारण परोपकार करने में तत्पर परम योग्य आचार्यों के प्रति उत्कृष्ट मानसिक शुद्धिपूर्वक भक्ति करना श्रुतभक्ति है । भक्ति का आशय हैउनमें रहे हुए गुणों का कीर्त्तन करना, वन्दन करना, उपासना करना । यह श्रुतभक्ति भी तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का कारण है । (२०) प्रवचनप्रभावना - बहुत-से भव्य जीवों को दीक्षा देना, संसार रूपी कूप में શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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