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________________ ~ ~ ~~ - ~ ~- ~ - - - - ~ ~ ~- ~ ~ - ~ दीपिकानियुक्तिश्च अ०१ नवतत्वनिरूपणम् २५ वनस्पतिकायिकानां द्वीप-समुद्रादिस्थानं बोध्यम् । सूक्ष्माणाञ्च--वनस्पतिकायिकानां सर्वलोकव्यापित्वं बोध्यम् । अत्रेदं बोध्यम्-त्रसत्वं द्विविधम् क्रियातो लब्धितश्च । तत्र क्रिया तावत् कर्म--चलन-- देशान्तरप्राप्तिः-गतिः तस्मात्-क्रियामाश्रित्य तेजस्कायिक-वायुकायिकयोस्त्रसत्वमवगस्तव्यम् । लब्धिः पुनस्त्रसनामकर्मोदयः, तस्मात् त्रसनामकर्मोदयाद् देशान्तरप्राप्तिलक्षणक्रियावत्वाच्च द्वीन्द्रिया दयस्त्रसा व्यपदिश्यन्ते । स्थावरनामकर्मोदयलक्षणलब्ध्या च सर्वे पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाः स्थावरा व्यपदिश्यन्ते । मुक्ताश्च न त्रसाः न स्थावराः, अतएव-न ते बादरा वा सूक्ष्मा वा व्यवहियन्ते संसारिणामेव त्रस-स्थावरत्वयोः सूक्ष्मबादरवयोश्च प्रतिपादितत्वात् इति भावः । सूत्र-६॥ मूल सूत्रम्--" पुणो दुविहा पज्जत्तिया-अपज्जत्तिया य ॥७॥ छाया--पुनर्द्विविधाः पर्याप्तकाः-अपर्याप्तकाश्च." दीपिका-पूर्वसूत्रे तावत्-सूक्ष्म-बादरभेदेन संसारिणो जीवा द्विविधा भवन्तीत्युक्तम् सम्प्रति-तेषामेव जीवानां पुनः प्रकारान्तरेण द्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह-"पुणो दुविहा, पज्जत्तिया अपज्जत्तिया य"-इति । कायिक हैं । बादर वनस्पतिकायिकों के स्थान द्वीप समुद्र आदि हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकाय सम्पूर्ण लोकव्यापी समझना चाहिए । यहाँ यह समझना चाहिए कि त्रसत्व दो प्रकार का है-क्रिया से और लब्धि से। क्रिया का अर्थ है कर्म--चलन, एक जगह से दूसरी जगह पहुँचना अर्थात् गति करना । इस क्रिया की अपेक्षा से तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव भी त्रस हैं। लब्धि का अर्थ है त्रसनाम कर्म का उदय । इसकी अपेक्षा से तथा गमन रूप क्रिया की अपेक्षा से द्वीन्द्रिय आदि जीव ही त्रस कहलाते हैं। ___ स्थावरनामकर्म के उदय रूप लब्धि की अपेक्षा से सब पृथ्वी कायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव स्थावर कहलाते हैं । 'मुक्त जीवन न त्रस है, न स्थावर । अतएव वे न बादर कहलाते हैं, न सूक्ष्म ही । त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर का व्यवहार संसारी जीवों में ही होता है ।।६।। मूलसूत्रार्थ--- 'पुणो दुविहा' इत्यादि ॥७॥ जीव पुनः दो प्रकार के है-पर्याप्त और अपर्याप्त ॥७॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में कहा जा चुका है कि सूक्ष्म और बादर के भेद से संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं । अब उन्हीं के दूसरे प्रकार से दोभेद बतलाने के लिए कहा है । संसारी जीव पुनः दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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