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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. ६
देवायुष्यबन्धहेतुनिरूपणम् ४४५ हेतुभिर्देवायुष्यबन्धो भवतीतिभावः । एवम्-धर्मश्रवणगौरव तपोभावना योग्यपात्रदान सम्यग्दर्शनादिभिश्च देवायुष्यबन्धो भवतीति बोध्यम् ।
____ उक्तञ्च-स्थानाङ्गे ४-स्थाने ४-उद्देशके–“चउहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्म पगरे ति, तं जहा -सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए" इति । चतुर्भिः स्थानै र्जीवा देवादुष्यतया कर्म प्रकुर्वन्ति तद्यथा सरागसंयमेन, संयमासंयमेन, वालतपःकर्मणा, अकामनिर्जरया इति ।
एवं सम्यकत्वेनाऽपि देवायुष्यकर्मबन्धो भवतीतिबोध्यम् । उक्तञ्च प्रज्ञापनायां ६-पदे "वेमाणियावि जइ समहिट्ठि पज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगगब्भवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जति किं संजय सम्मदिद्विहितो असंजयसम्मद्दिहिपज्जत्तएहितो संजयासंजय सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तसंखेज्ज हिंतो उववज्जति गोयमा ! तिहिंतोवि उववज्जति, एवं जाव अच्चुगो कप्पो" इति ।।
वैमानिका अपि यदि सम्यग्दृष्टि पर्याप्तसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिगगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येभ्य उत्पद्यन्ते [तर्हि । किं संयतसम्यग्दृष्टिभ्योऽसंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्तेभ्यः संयतासंयतसम्दृष्टि पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिगगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येभ्य उपपद्यन्ते ? गौतम त्रिभ्योऽप्युत्पद्यन्ते, एवं यावदच्युतः कल्पः इति ॥६॥
तात्पर्य यह है कि सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप, इन चार कारणों से देवायुष्य का बन्ध होता है । इसी प्रकार धर्मश्रवण करने से, तपस्या करने से, बारह भावनाओं के चिन्तन से या तप में भावना रखने से, योग्य पात्र को दान देने से तथा सम्यग्दर्शन आदि कारणों से भी देवायु का बन्ध होता है।
स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान के चौथे उद्देशक में कहा है – 'चार कारणों से जीव देवायु कर्म का बन्ध करते हैं-(१) सरागसंयम से (२) संयमासंयम से (३) बालतप का आचरण करने से और (४) अकामनिर्जरा से ।
सम्यक्त्व से भी देवायु कर्म का बन्ध होता है । प्रज्ञापनासूत्र के छठे पद में कहा है
यदि वैमानिक देव....सम्यग्दृष्टि, पर्याप्त, संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमिज, गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या संयतसम्यग्दृष्टियों से आकर उत्पन्न होते हैं अथवा असंयत सम्यग्दृष्टियों से आकर या संयतासंयतसभ्यग्दृष्टियों से आकर उत्पन्न होते हैं ? उत्तरमें प्रभु श्री कहते हैं हे गौतम तीनों से ही आकर उत्पन्न होते हैं । इस कथन का भाव यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टि भी वैमानिक देव के रूप मे उत्पन्न हो सकता है, संयतासंयत भी और संयत भी वैमानिक देव के रूप में उत्पन्न हो सकता है। इस कथन से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन भी देवायु का कारण होता हैं ॥६॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧