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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ४ सू. ५
पुण्यकर्मबन्धहेतुनिरूपणम् ४४१
अल्पारम्भः - स्थूलप्राणातिपातादिजनकव्यापारत्यागः अल्पपरिग्रहः -- आभ्यन्तरेषु रागद्वेषाद्यात्मपरिणामेषु बाह्यक्षेत्र वास्तु हिरण्यधनधान्यादिषु ममत्वत्यागः, आदिपदेन स्वभावमार्दम् आर्जवञ्च गृह्यते । तथाच—-अल्पारम्भाऽल्पपरिग्रहस्वभावमा देवार्जवैश्चतुर्भिर्हेतुभूतैर्मनुष्यायुष्यं पुण्यकर्म बध्यते ॥ ५ ॥
तत्त्वार्थनिर्युक्तिः - पूर्व सर्वभूतानुकम्पादयः सप्त सातावेदनीयरूपपुण्य कर्मबन्धहेतुतया प्रतिपादिताः सम्प्रति—–मनुष्यायुष्यरूपपुण्यकर्मबन्धस्य हेतुत्वेना - ऽल्पारम्भादयः प्ररूप्यन्ते-
"अप्पारंभ अप्पपरिग्गहाइ एहिं मणुस्साउए- " इति अल्पारम्भाऽल्पपरिग्रहादिभिः कारणैर्मनुष्यायुष्यं कर्म बध्यते तच्च - पुण्यरूपमव सेयम् । तत्रा - ऽल्पारम्भः स्थूलप्राणातिपातादिजनकव्यापारविरतिरूपः । अल्पपरिग्रहः - आन्तरेषु रागद्वेषाद्यात्मपरिणामरूपेषु बाह्येषु च क्षेत्रवास्तुधनधान्यसुवर्णादिषु परिग्रहेषु ममत्वविरतिरूपः ।
आदिपदेन स्वभावमार्दवम्, आर्जवञ्च गृह्यते । तत्र – स्वभावेन निसर्गेण - प्रकृत्यैव मार्दवम्मृदुता, जातिकुल - बलरूपलाभ - तपः श्रुतैश्वर्यस्थानेषु गर्वाभावः स्वभावमार्दवमुच्यते । प्रकृतिभत्वम् - प्रकृतिविनीतत्वम् अमत्सरत्वम्, सानुक्रोशत्वम् । एवं स्वभावेन सहजेन आर्जवम् |
ऋजुता - सरलता यथावस्थितमनोवचः कायविषयककुटिलताराहित्यम् ।
तथाचा -ऽल्पारम्भता स्तोकप्राणिवधाद्याचरणमपि नान्तरीयकम् अल्पपरिग्रहता शब्दादिउसकी अल्पता अर्थात् स्थूलप्राणातिपातादिजनक व्यापार का त्याग, अल्पपरिग्रह का अर्थ है आभ्यन्तर रागद्वेषादि आत्मपरिणाम तथा बाह्य क्षेत्र (खेत - खुली जगह), वास्तु ( मकान आदि), धन धान्य- स्वर्ण आदि पर ममत्व का त्याग २, । सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से स्वभाव की मृदुता अर्थात् कोमलता और ऋजुता अर्थात् सरलता ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार अल्प आरंभ, अल्प परिग्रह, स्वभाव की मृदुता तथा ऋजुता, इन चार कारणों से मनुष्यायु रूप पुण्यकर्म का बन्ध होता है ||५||
तत्वार्थनियुक्ति - इससे पूर्व सर्वभूतानुकम्पा आदि सात सातावेदनीय कर्म के बन्ध के कारणों का प्रतिपादन किया गया है अब मनुष्यायु रूप पुण्य कर्म के कारणों की प्ररूपणा करते हैं। अल्प आरंभ १ और अल्प परिग्रह २ आदि कारणों से मनुष्यायु रूप पुण्य कर्म का बन्ध होता है ।
अल्पारम्भ वह है जिसमें स्थूल प्राणातिपातादिजनक व्यापार का परित्याग करना । परिग्रह का अर्थ है मूर्छा या गृद्धि । उसमें अल्पता, अर्थात् आन्तरिक रागद्वेषादि आत्मपरिणाम, तथा बाह्य क्षेत्र, वास्तु ( महल - मकान ) धन धान्य स्वर्ण आदि पदार्थों में ममत्व का त्यागकरना है । 'आदि' शब्द से स्वभावमार्दव और आर्जव का ग्रहण किया गया है । स्वभाव से अर्थात् प्रकृति से ही मृदुता होना अर्थात् जाति, कुल, बल, रूप, लाभ, तप, श्रुत एवं, ऐश्वर्य के विषय में अभिमान न होना स्वभावमार्दव कहलाता है ३ । प्रकृतिभद्रता ४, प्रकृति विनीतता ५,
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧