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________________ ४३६ तत्त्वार्थस्त्रे तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे अन्नपुण्यादिभेदेन पुण्यं नवविधं प्ररूपितम् , सम्प्रति-तस्य पुण्यस्य द्विचत्वारिंशदविधं भोगं प्रतिपादयितुमाह-"तब्भोगो बायालीसभेएणं-" इति । तस्य पूर्वोपात्तस्य शुभकर्मरूपपुण्यस्य भोगः सुखदुःखानुभवलक्षणो द्वाचत्वारिंशदभेदेन भवति । तद्यथा-सातावेदनीयम्-१, युगलतिर्यङ्मनुष्यदेवायूंषि–३, मनुष्यदेवगती-२, पञ्चेन्द्रियजातिः-१, औदारिकादिशरीराणि पञ्च-५, समचतुरस्रसंस्थानम् १, वज्रर्षभनाराचसंहननम्-१, औदारिक-वैक्रियाऽऽहारकशरीरत्रयाङ्गोपाङ्गानि-३, प्रशस्त वर्णगन्धरसस्पर्शाः-४, मनुष्यदेवानुपूव्यौ-२, अगुरुलधु-पराघातो- च्छ्वासा-ऽऽतपो-योत-प्रशस्त विहायोगति-स-बादर-पर्याप्त प्रत्येकशरीर-स्थिर-शुभसुभग-सुस्वरा-ऽऽदेय-यशः कीर्ति-निर्माण ---- तीर्थकरो-च्चैर्गोत्राणि १९ इत्येतैःचत्वारिंशद्विधैः पुण्यस्य सुखरूपफलभोगो भवतीति बोध्यम् ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व नवधाभिन्नं पुण्यं प्ररूपितम्, पुण्यस्य द्विचत्वारिंशभेदान् फलभोगप्रकारं प्ररूपयितुमाह-"तब्भोगो बायालीसमेएणं-" इति । तद्भोगः-तस्य शुभकर्मरूपपुण्यस्य भोगः सुखरूपफलानुभवः द्वाचत्वारिंशभेदेन सम्पद्यते-तथाहि- 'सायं-१ उच्चागोयं-१ नरतिरियदेवाउ-३ मणुस्सदेवगई-२ । पंचिंदियजाइ-! तणुपणगं-५ अंगोवंगतियंपि-३ वज्जरिसहनारायं संहननं-? समचउरंससंठाणं-१ वण्णाइ चउक्कसुपसत्थं-४ मणुस्सदेवाणुपुवीए-२ अगुरुलहु-१ पराघायं-! उस्सासं-१ आयवं-! उज्जोयं-सुपसत्था विहयगई-तसाइदसगं-१० णिम्माणं- तित्थयरं-१ बायालीसा पुन्नपगईओ-" इति ।। तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में अन्नपुण्य आदि नौ प्रकार के पुण्य का प्ररूपण किया गया अब पुण्य के बयालीस प्रकार के भोग बतलाने के लिए कहते हैं—पूर्वोपार्जित शुभ कर्म रूप पुण्य का सुखानुभव रूप भोग वयालीस प्रकार से होता है । वह इस प्रकार है-(१) सातावेदनीय (२) तियेचायु (३) मनुष्यायु (४) देवायु (५) मनुष्यगति (६) देवगति (७) पंचेन्द्रियजाति ८--१२ औदारिक आदि पाँच शरीर (१३) समचतुरस्र संस्थान (१४) वज्र ऋषभनाराचसंहनन (१५--१७) औदारिक, वैक्रिय, आहारक के अंगोपांग (१८) प्रशस्तवर्ण (१९) प्रशस्तगन्ध (२०) प्रशस्तरस (२१) प्रशस्त स्पर्श (२२) मनुष्यानुपूर्वी (२३) देवानुपूर्वी (२४) अगुरुलघु (२५) पराघात (२६) उच्छ्वास (२७) आतप (२८) उद्योत (२९) प्रशस्तविहायोगति (३०) त्रस (३१) बादर (३२) पर्याप्त (३३) प्रत्येक शरीर (३४) स्थिर (३५) शुभ (३६) सुभग (३७) सुस्वर (३८) आदेय (३९) यशःकीर्ति (४०) निर्माण (४१) तीर्थकर गोत्र और (४२) उच्चगोत्र । इस बयालीस प्रकारों से पुण्य का सुख रूप भोग होता है, ऐसा समझना चाहिए ॥३॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पहले बतलाया गया है कि पुण्य नौ प्रकार का होता है। अब यह बतलाते हैं कि पुण्य बयालीस प्रकार से भोगा जाता है अर्थात् पुण्य के फलस्वरूप बयालीस भावो की प्राप्ति होती है શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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