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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ३ ० २१ अनुभावबन्धनिरूपणम् ४१५ एवञ्च – जीवः कर्मफलविपाकमनुभवन् कर्मप्रत्ययमेवाऽनाभोगवीर्यपूर्वकं कर्म संक्रमयति । तथाच --आत्मा—उत्पादव्ययधौव्यपरिणतिशीलो ज्ञानावरणादिकस्य कर्मणो विपाकमनुभवन् कर्महेतुकमेव तदन्यनिमित्तवर्जितमनाभोगवीर्यपूर्वकं कर्मसंक्रमं विधत्ते । निर्निमित्तस्तावदनामोगो ज्ञानाद्यावरणोदय उच्यते । आभुञ्जानस्य कर्मफलविपाकमध्यवस्यत आत्मनश्चेष्टाविशेष आभोगवीर्यम् । अनाभुञ्जानस्य तत्फलविपाकमनध्यवस्यतः आत्मनः सामर्थ्य विशिष्टक्रियापरिणामोऽनाभोगवीर्यम् एवंविधानाभोगवीर्यपूर्वकं कर्म संक्रमं विधत्ते एवञ्च - कासाञ्चित् उत्तरप्रकृतीनां स्वस्वजातीयस्वेवोत्तरप्रकृतिषु संक्रमो भवति, न सर्वासामुत्तरप्रकृतीनाम् । तत्रापि सजातीयास्वेवोत्तरप्रकृतीषु संक्रमो न तु विजातीयासु । यथा - पञ्चप्रकारकं मतिज्ञानावरणादिकं ज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणादिषु चतुर्षु संक्रमते, नतु चक्षुर्दर्शनावरणादिषु दर्शना - वरणोत्तर प्रकृतिविशेषासु । - नापि ज्ञानावरणदर्शनावरणादिषु मूलप्रकृतिषु संक्रामति, नापि - दर्शनावरणं ज्ञानावरणादिस्वभिन्न जातीयमूलप्रकृतिषु वा सङ्क्रमं विदधातीतिभावः । बन्धविपाक निमित्तानां विभिन्नजातीयत्वात् । उदाहरणार्थ नरकायु तिर्थंचायु के रूप में नहीं पलट सकती, और दर्शनमोहनीय चारित्र मोहनीय के रूप में अपना फल नहीं देती तथा चारित्र मोहनीय का दर्शन मोहनीय के रूप में परिपाक नहीं हो सकता । इस प्रकार कर्म विपाकफल का अनुभव करता हुआ जीव कर्म के कारण ही अना - भोग वीर्य पूर्वक कर्म का संक्रमण करता है । का उदय कह इस प्रकार उत्पाद, व्यय और धौव्य परिणति वाला आत्मा ज्ञानावरण विपाक का अनुभव करता हुआ कर्म के कारण, अन्य निमित्तों के बिना ही पूर्वक कर्म का संक्रमण करता है । निमित्तहीन अनाभोग ज्ञानावरण आदि लाता है । आभोग करने वाले अर्थात् कर्मफल विपाक को भुगतने वाले आत्मा की विशेष 'चेष्टा आभोगवीर्य कहलाती है । तात्पर्य यह है कि समझबूझ कर जो प्रयत्न किया जाता है, उसे आभोगवीर्य कहते हैं । और बिना सोचे-समझे, अनजान में जो चेष्टा होती है, वह अनाभोग वीर्य कहलाती है । जीव अनाभोग वीर्यपूर्वक ही कर्म संक्रमण करता है । इस प्रकार किन्ही उत्तर प्रकृतियों का अपनी सजातीय उत्तरप्रकृतियों में संक्रम होता है, सब का नहीं । वह संक्रमण सजातीय उत्तर प्रकृतियों में ही होता है, विजातीय प्रकृतियों में नहीं । जैसे ज्ञानावरण कर्म की मतिज्ञानावरण कर्म आदि पाँच प्रकृतियों का श्रुतज्ञानावरण आदि चार प्रकृतियों के रूप में संक्रमण हो सकता है, दर्शनावरण की विशिष्ट प्रकृति चक्षुदर्शनावरण आदि में नहीं । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ आदि कर्मों के अनाभोग वीर्य
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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