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________________ दीपक नियुक्तिश्च अ. ३ सू. १५ मोहनीय कर्मणः स्थितिबन्धनिरूपणम् ४०५ तत्त्वार्थदीपिका -- “ पूर्वसूत्रे ज्ञानावरण- दर्शनावरण - वेदनीया - ऽन्तराय - कर्मचतुष्टयस्य स्थितिः प्रतिरूपिता, सम्प्रति - मोहनीयस्य कर्मणः स्थितिं प्रतिपादयितुमाह - "मोहणिज्जस्ससत्तरि कोडिकोडीओ - " इति । मोहनीयस्य पूर्वोक्तस्वरूपस्य कर्मणः सप्ततिसागरोपमकोटिकोट्यः उत्कृष्टतः स्थितिर्भवति, जघन्येन तु - अन्तर्मुहूर्तप्रमाणा स्थितिरवगन्तव्या - ॥१५॥ तत्त्वार्थनिर्युक्तिः – पूर्व ज्ञानावरणादीनां चतसृणां कर्मप्रकृतीनां स्थितिकालः सविस्तरं प्ररूपितः, सम्प्रति-मोहनीयकर्मप्रकृतेः स्थितकालं प्ररूपयितुमाह – “मोहणिज्जस्स सत्तरि कोडीकोडीओ-" इति । मोहनीयस्य कर्मणः सप्ततिः सागरोपमकोटिकोटियः उत्कृष्टतः स्थितिः सम्भवति, जघन्येन पुनरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा स्थितिर्भवति । तत्र चाबाधाकालः सप्तवर्षसहस्राणि बोध्यः । तदनन्तरं बाधाकालो यावदशेषं कर्मक्षीणं भवति यावत्कालादारभ्य मोहनीयं कर्म उदयावलिकाप्रविष्टं सत् यावच्च निःशेषः मुपक्षीणं भवति तावान् कालो बोध्यः, तच्च मोहनीयं कर्म सप्तसु वर्ष सहत्रेषु व्यतीतेषु उदयावलिकां प्रविशतीति भावः । " इयञ्चापि मोहनीयस्य कर्मण उत्कृष्टा स्थितिः संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य मिथ्यादृष्टेः पर्याप्तकस्य जीवस्याऽवगन्तव्या । तत्त्वार्थदीपिका -- पूर्वसूत्र में ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय और अन्तराय कर्म की स्थिति बतलाई गई है, अब मोहनीय कर्म की स्थिति का प्रतिपादन करते हैं मोहनीय कर्म की, जिसका स्वरूप पहले कहा जा चुका है, उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है । इस कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है ॥ १५ ॥ तत्त्वार्थनियुक्ति – इससे पहले ज्ञानावरण आदि चार कर्मप्रकृतियों का स्थिति का विस्तार पूर्वक बतलाया जा चुका है, अब मोहनीय कर्म का स्थिति काल बतलाते हैमोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की तथा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की है । मोहनीय कर्म का अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है । अबाधाकाल के समाप्त होने से लेकर सम्पूर्ण कर्म के क्षय होने तक का काल बाधाकाल कहलाता है । अर्थात् जिस समय मोहनीय कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट हुआ, उस समय से लगाकर उसके पूर्ण रूप से क्षीण होने तक का समय बाधाकाल कहा जाता है। फलितार्थ यह है कि सात हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति वाला मोहनीय कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट होता है । मोहनीय कर्म की यह उत्कृष्ट स्थिति संज्ञी पंचेन्द्रिय मिध्यादृष्टि पर्याप्त जीव की अपेक्षा से समझना चाहिए । अर्थात् मिथ्यादृष्टि संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव ही सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति का बन्ध कर सकता है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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