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________________ दीपिकानिर्युक्तिश्च अ. १ नवतत्वनिरूपणम् १९ कर्मपुद्गलाः समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णाः : सन्तः पूर्वोक्तेनैव क्रमेण तस्य जीवस्य यावत्कर्मभावमापद्यन्ते तावत् द्रव्यकर्मपरिवर्त्तनं बोध्यम्, औदारिकवैकियाहारकत्रयाणां शरीराणां - षण्णां पर्याप्तानां योग्यान् यान् पुद्गलान् एकस्मिन् समये एकोजीवो गृही - तवान् ते खलु पुद्गलाः-स्निग्ध- रूक्ष-वर्ण- गन्ध रसादिभि स्तीत्र - मन्द - मध्यमभावेन च यथावस्थिताः, द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णाः सन्तोऽगृहीतान् पुद्गलवान् अनन्तवारान् व्यतीत्य -- मिश्रका - श्वाऽनन्तवारान् व्यतीत्य गृहीतांश्च पुद्गलान् अनन्तवारान् व्यतीत्य, तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य यावद् नोकर्म भावमापद्यन्ते तावत्समुदितं नो कर्म द्रव्यपरिवर्त्तनमवसेयम् । एवं क्षेत्रपरिवर्त्तना - दिकमपि बोध्यम् । सू० ४ || निर्युक्तिः -- पूर्वसूत्रे - समनस्काऽमनस्कभेदेन जीवानां द्वैविध्यं प्ररूपितम्, सम्प्रतिपुनस्तेषामेव जीवानां प्रकारान्तरेण विभागं प्रदर्शयन् विशेषस्वरूपं प्रतिपादयति- संसारिणो मुक्ताश्च इति पूर्वोक्तोपयोगलक्षणलक्षिताः खलु जीवाः संक्षेपतो द्विविधाः भवन्ति, संसारिणो - मुक्ताश्च । तत्र—यदवष्टम्भेनाऽऽत्मनः संसरणं भवाद्भवान्तरगमनं भवति, स संसारः कर्माष्टरूपो बोध्यः । ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय- वेदनीय - मोहनीयाssयु - नम - गोत्रान्तरायिकरूपो बोध्यः । एवंविधः संसारो येषामस्ति ते संसारिण उच्यन्ते । अथवा - बलवान् मोहरूपः संसारो एक समय अधिक आवलिका को छोड़कर द्वितीय आदि समयों में निर्जीर्ण होकर उसी पूर्वोक्त क्रम से उसी जीव के कर्म रूप में प्राप्त होते हैं। उतना काल द्रव्यकर्मपरिवर्तन समझना चाहिए एक जीव ने औदारिक, वैक्रिय, आहारक, इन तीन शरीरों तथा छह पर्याप्तियों के योग्य जिन पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया, वे पुद्गल स्निग्ध, रूक्ष, वर्ण गंध, रस, तीव्रता, मन्दता या मध्यम रूप से स्थित हुए। फिर द्वितीय आदि समयों में निर्जरा को प्राप्त हुए अगृ हीत पुद्गलों को अनन्त वार छोड़ कर मिश्र पुद्गलों को भी अनन्त वार छोड़ कर तथा गृहीत पुद्गलों को अनन्त वार छोड़ कर उसी प्रकार उसी जीव के, जितने काल में नो कर्मपन को प्राप्त होते हैं, उतना काल नो कर्म द्रव्यपरिवर्त्तन कहलाता है । इसी प्रकार क्षेत्रपरिवर्तन आदि भी समझ लेना चाहिए || ४ || 3 तत्वार्थ नियुक्ति - पूर्वसूत्र में समनस्क और अमनस्क के भेद से जीवों के दो भेदों का प्रतिपादन किया गया । अब उन्हीं जीवों के दूसरे प्रकार से भेद दिखलाए जाते हैं । पूर्वोक्त उपयोग लक्षणवाले जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं- संसारी और मुक्त जिसके कारण आत्मा का संसरण अर्थात् एक भव से दूसरे भव में गमन होता है, वह आठ कर्म संसार कहलाते हैं । कर्म आठ प्रकार के हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम गोत्र और अंतराय । जो जीव ऐसे संसार के वशीभूत हैं, वे संसारी कहलाते हैं । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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